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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३०७

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सादर स्मरण -महादेवी वर्मा महाकवि प्रसाद का जब-जब स्मरण आता है, नब-तब मेरे सामने एक ही चित्र अकित हो जाता है। हिमालय के ढाल पर, उसकी गर्वीली चोटियों से ममता करता हुआ एक सीधा- ऊँचा देवदारु का वृक्ष था। उसका उन्नत मस्तक हिम-आतप-वर्षा के प्रहार झेलता था। उसकी विस्तृत शाखाओं को आंधी-तूफान झकझोरते थे और उसकी जड़ों से एक छोटी पतली जलधारा आँखमिचौनी खेलती थी। ठिठुरानेवाले हिमपात, प्रखर धूप और मूसलधार वर्षा के बीच में भी उसका मस्तक उन्नत रहा, और आंधी और बर्फीले बवंडर के झकोरे सहकर भी वह निष्कम्प-निश्चल खड़ा रहा; पर जब एक दिन संघर्षों में विजयी के ममान आकाश मे मस्तक उठाए, आलोक-स्नात वह उन्नत और हिमकिरीटिनी चोटियों से अपनी ऊंचाई नाप रहा था, तब एक विचित्र घटना घटी। जिस उपेक्षणीय जलधारा का प्रहार हल्की गुदगुदी के समान जान पड़ता था, उसी ने तिल-तिल करके उसकी जडों के नीचे खोखला कर डाला और परिणामतः चरम जिय के क्षण में वह देवदारु, अपने चारों ओर के वातावरण को सौ-सौ ज्योतिश्चक्रो में मथता हुआ धरती पर आ रहा । सभी महान् प्रतिभाशाली माहित्यकारो के जीवन मे संघर्ष रहना अनिवार्य है। पर बड़े-बड़े संघर्ष उनकी जीवनी शक्ति को क्षीण कम कर पाते है । यह तो ऐसी छोटी बाधाओं का सम्मिलित परिणाम होता है, जिनकी ओर वे सर्वथा उपेक्षा का भाव रखते है । प्रसादजी इसके अपवाद नही थे । मेरे चित्र की पृष्ठभूमि म उनका साहित्य, मेरा कुछ घण्टों का परिचय और कुछ प्रचलित स्तुति-निन्दापरक कथाएं ही है। छायावाद-युग की दृष्टि से उनके साहित्य से मेरा अपरिचय सम्भव नहीं था और स्थान की दृष्टि से प्रयाग से काशी दूर नहीं थी; परन्तु कुछ अज्ञात कारणों से मैंने उन्हे प्रथम और अन्तिम बार तब देखा, जब वे 'कामायनी' का दूसरा सर्ग लिख रहे थे और मैं 'सान्ध्यगीत' लिख चुकी थी। पर, उनका यह दर्शन भी न किसी अखिल भारतीय साहित्य-सम्मेलन के विवादी मेघगर्जन में हुआ और न किसी अखिल भारतीय कवि सम्मेलन मे सातों स्वर-समुद्रों संस्मरण पर्व : ३