सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

के मंथन के बीच, न भाषण के अजस्र प्रवाह में, न फूल-मालाओं के घटाटोप में। काशी में उनका दर्शन अपनी कवित्व-हीनता में विचित्र है ! भागलपुर से प्रयाग आते-जाते मार्ग में जब-तब काशी पड़ जाती थी। एक बार प्रसाद के दर्शनार्थ ही मैंने कुछ घंटों के लिए यात्रा भंग की; पर मैं और मेरे साथ आनेवाला नौकर, दोनों ही काशी की सड़कों और गलियों से सर्वथा अपरिचित थे। कवि प्रसाद को सब जानते होंगे, इसी विश्वास से कई तांगेवालों से पूछताछ की, पर परिणाम कुछ न निकला। निराश होकर अब स्टेशन के वेटिंग रूम मे लौटनेवाली थी, तब एक ने प्रश्न किया-"क्या सुंघनी साहु के घर जाना है ?" सुंधनी साहु का रूढ अर्थ ग्रहण करने मे मैं असमर्थ रही। समझा, तम्बाकू के चूर्ण का नास लेनेवाले कोई साहूकार होगे ! फिर अर्थ को और स्पष्ट करने के लिए पूछा-"सुंघनी साहु क्या काम करते है !"-तम्बाकू की दूकान करते है-सुनकर तांगेवाले पर अकारण ही क्रोध आने लगा--प्रसाद जैसा महान कवि, तम्बाकू की दूकानदारी जैसा गद्यात्मक कार्य कैसे कर सकता है ! कुछ स्वगत और कुछ तांगेवाले के अज्ञात कानों के लिए कहा-"मुझे किसी तम्बाकू की दूकानवाले सेठजी के यहाँ नही जाना है । जिनके यहां जाना है, वे कविता लिखते है ।" तांगेवाला भी साधारण नहीं था, इसी से उसने परास्त न होने की मुद्रा मे उत्तर दिया--"हमारे सुँघनी साहु भी बड़े-बड़े कवित्त लिखते हैं !" तब मैंने सोचा-सम्भव है, ऐसे कवित्त लिखने मे ख्यात सुंघनी साहु, प्रसाद जैसे कवि से अपरिचित न हों ! स्टेशन पर कई घटे बिताने से अच्छा है कि सुंधनी साहु से पता पूछ देखू । आकाश को नीले कपड़े की चीरों में विभाजित कर देनेवाली, काशी की गलियों में प्रवेश कर मुझं सदा ऐसा लगता है, मानो मैं किसी विशालकाय अजगर के उदर में घूम रही हूँ, जिसने अपनी साँसों से मुझे ही नही, कुछ दूकानो को भी अपने भीतर खींच लिया है और अब बाहर आने का एक मात्र द्वार, उसका मुख, बन्द हो गया है। अन्त में जहां तक तांगा जा सका, वहाँ तक तांगे मे, उसके उपरान्त कुछ दूर पैदल चलकर हम एक सफेद पुते हुए मकान के मामने पहुंचे, जो अतिसाधारण और असाधारण के बीच की मध्यम स्थिति रखता था। कहलाया, प्रयाग से महादेवी आई है! सोचा, यदि गृहस्वामी प्रसादजी ही होंगे तो मेरा नाम उनके लिए सर्वथा अपरिचित न होगा, और यदि कोई संपनी साहु ही हैं तो शिष्टाचार के नाते ही बाहर आ जाएंगे! प्रसादजी स्वयं ही बाहर आए । उनका चित्र उन्हें अच्छा हृष्ट-पुष्ट स्थविर बना देता है, पर स्वयं न वे उतने हृष्ट जान पड़े और न उतने पुष्ट ही। न अधिक ऊँचा न नाटा, मझोला कद, न दुर्बल न स्थल, छरहरा शरीर; गौर वर्ण; माथा . ४: प्रसाद वाङ्मय