पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३१५

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फ्यो व ऐसी क्या ले रहे थे- इम सम्बन्ध म मैंने उनमे प्रश्न किया। इस देश में तो अनेक पौराणिक कथा है, अनेक ऐतिहामिक कथाएं है। उन्होंने मुझे उत्तर दिया कि कथानक ऐमा चाहता हूं जो सबको अपना जान पड़े, और उनके इस उत्तर में बहुत गम्भीर अर्थ छिपा हुआ था। यदि हम विश्व मानवता की कोई गात. हिना चाहते है तब हम देश काल मे ऊपर उठकर अपने परिवेश से ऊपर उठकर कुछ कहते है। वैम तो प्रत्येक कवि, प्रत्येक साहित्यकार, एक विशेष युग में उत्पन्न होता है। एक विशेष भूमिखण्ड मे उत्पन्न होता है, विशेष समाज में उत्पन्न होता है। शून्य मे वह शून्य में अवतरित नही होता। और उसके चारो ओर उसके परिवेश व प्रभाव रहते है, उसकी संस्कृति रहती है उसका दर्शन रहना है उममी मामाजिक मान्यता रहता है, धारणाये रहती है, और एक साधारण जीवन की दनन्दिन ममस्या भी रहती है। इन सबको लेकर वह अपने आपको चना नही । ये गगमाएँ उसके लिए बन्धन नही होती। जैसे वृक्ष के चारों और एक पान-गाल रहता है, क्या रहती है कि उसे अधिक जल दिया जा सके, उसकी रक्षा की जा मरे । परन्तु यह बाल-नाल उपके सौरभ के विराट मण्डल को नही बॉध पाता। पोर आल-बाल ऊपर यार नहीं बना सक्ने जिमसे वह आकाश ।' . फल के । केन 1 . मृत ना सन ने है। इसी प्रकार प्रत्येक कवि एक दा म ?त्पन्न हा।। भी, उस देश गे बंधा नही रहता और वह उसी वृक्ष के ममान है जो आम की मोर उठता चला जाता है और शून्य विराट् आकाश मण्डल को अपन सौरभ म भर देता है। इसी प्रकार यह मृजन करता है। प्रसाद की प्रतिभा बहमुग्वी दी। उन्होन माहित्य के जिम अग का म्पर्श किया, जिम विधा को अपनाया उम ' नया ,'थ दया, नया योन्दर्य दिया, उसके माध्यम मे इस देश की संस्कृति को वाणी तो काही विश्व-मस्कृति में भी योगदान दिया। उनमें नाटको के सम्बन्ध में मैंने प्रश्न किया था कि आपने यो नाटक लिखना आरम्भ किया, कविताएं उनकी इतनी म पर थी, नारा के गीत इतने मधुर है, तो उन्होंने कहा उनके मन को बड़ी पीडा पहुंची थी पारसी थियेटर न म्पनियों की दुर्दशा देखकर, उनका अभिनय देख- कर. उनकी भाषा देखकर वह व्यथा उनकी, उनके नाटको मे व्यक्त हुई है और उन नाटको पायम रत की मरकृति कितनी मजीव हुई है, इसका प्रमाण चीनी आक्रमण । ममय गया। ज्ञात हो गया होगा। उस समय तक तो ये था कि ये तो ऐगी भाषा में लिखे गये है, इतनी क्लिष्ट है, इतनी संस्कृतिनिठ है, इतने लम्बे-लम्बे वाक्य हे, ऐसा वाक्य विन्याम हे इमका, ये होगा, वो होगा, परन्तु हमारे पास कुछ नही था कि हम अपने देश को जगा सकते, फिर वही 'हिमाद्रि तुग शृंग से' आपने मबने सुना होगा, मो गर सूना होगा, हजार बार सुना होगा और मै समझती हूँ जब तक देश ओज चाहता है, फिर लोटकर वही जाता है, फिर वही जाता है। वे संस्मरण पर्व : ११