पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३२०

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आयुष्मान प्रिय रत्नशंकर शुभाशिषः तुम्हारा पत्र मिला तथा यह जानकर कि कामायनी का अर्धशती समारोह मनाया जा रहा है बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं कई मास से स्पाडिलाइटिस से पीडित हूँ । कण्ठ मे तथा पीठ पर पट्टा बाँधना पड़ता है। आना जाना तो पीडा के कारण बन्द ही है और डाक्टर भी यात्रा की अनुमति नहीं देते । इस पीडा के साथ ही अधिक रक्तचार भी है। ये सब वृद्धावस्था की व्याधियां है और इनसे मुक्ति तो जीवन से मुक्ति मे ही सम्मव है । तुम्हारे समारोह की सफलता के लिये शुभकामनाये प्रेषित है। कामायनी मेरी प्रिय पुस्तक है। वह किसी एक कालखण्ड मे सीमित नही हो सकती क्योंकि वह मानव जीवन की शाश्वत कथा होने के कारण कालजयी गाथा है। बुद्धि जब मानव की आस्था पर अमरबेल के समान छा जाती है तब मनुष्य अशान्त तथा संघर्ष प्रिय हो जाता है। आज के बुद्धिवाद के युग मे यह अधिक प्रासंगिक हो गई है। सम्भव है हम भी इस शुष्क तथा सवेदना रहित बुद्धिवाद से थककर तथा नित्यनवीन मारक शस्त्रो के होड मे पराजित होकर कामायनी द्वारा संवेदित आनंद की स्थिति में पहुंच सके। प्रयत्न करना चाहिये कि कामायनी का सन्देश अधिक से अधिक प्रसार तथा प्रचार पा सके। सबको मेरा आशीर्वाद तथा नमन पहुँचा देना। शुभास्ते पन्थान सन्तु। शुभेच्छुका महादेवी १६: प्रसाद वाङ्मय