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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३२१

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प्रसाद को याद '-आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री 1 . ( १ ) बाहर से, दो परस्पर विरोधियों को मिलाने के लिए, हमें कितने ही तो और सिद्धान्तों का सहारा लेना पड़ता है; किन्तु प्रकृति में महज भाव से फूल और काटे मिले हुए हैं; उजाला अंधेरे से आंख-मिचौनी खेल रहा है । प्रसाद ने अपने व्यक्तित्व और कृतित्व में दो परस्पर विरोधियों को मिलाने का प्रयत्न किया, इसीलिए उन्हें तर्कों और सिद्धान्तों पर अधिक बल देना पड़ा है। वह महान बन; सहज न रहे। जहाँ धरती और आकाश मिलते है उसे क्षितिज कहा जाता है; जहाँ काव्य और दर्शन मिलें, उस बिन्दु को 'प्रसाद' कहा जाना चाहिए ? यों धरती और आकाश नहीं मिलते; काव्य की नीलिमा एवं दर्शन की पीतिमा ने नीर-क्षीर की तरह घुल-मिल कर प्रसाद की हरियाली उपजाली थी। किन्तु काव्य और दर्शन परस्पर विरोधी कहां हैं ? क्या प्रसाद का कवि मूलतः भोगी था, जिसे योगी बनाते-बनाते वह टूट गए ? क्या प्रसाद का मन विशुद्ध सौन्दर्योपासक था, जिसे कल्याणी करुणा और समरसता न पची और वह बिखर गया ? प्रसाद के गन्धर्व-सुन्दर तन को शिव का मृत्यंजय मन नही रास आया ? उन्हें तो जीना था; क्यों जल्दी मर गये ? x x X गम्भीक भावों और उच्च विचारों को अपनी आत्मा में धुला-मिला कर पूर्ण वाणी देने वाले प्रसाद के ऐसे कितने कवि होते हैं ? दर्शन और सौन्दर्य के ताने-बाने से उनका समग्र व्यक्तित्व बुना हुआ था; भावों और विचारों के अभूतपूर्व मिश्रण से वह जो प्रगाढ़ रस सिरज सके, छलकने वाले उसका स्वप्न भी देख सकते हैं क्या ? इच्छा, ज्ञान और कर्म की समरसता उनके सन्तुलित जीवन की नींव थी। उनकी उदात्त कल्पनाएं ऊँचे आचरण के आभिजात्य से ऐश्वर्य प्राप्त करती थी; २ संस्मरण पर्व । १७