पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३२३

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आज लगा है लो, वह कंपने, देख मौन मरने वाले को! - ( २ ) मैने सर्व-प्रथम प्रमाद जी को सन् '६२ में देखा था। बनारस के टाउन हाल में रत्नाकर जी के माहित्यिक श्राद्ध के रूप मे एक कवि-गोष्ठी आयोजित हुई थी। सामान्य शोक-ममाओ से यह अत्यधिक प्रभावोत्पादक थी। स्वयं रत्नाकर जी के तदाकार सुपुत्र ने भाव-विह्वल होकर, रत्नाकर जी के ही रग मे, दो-चार घनाक्षरियां सुनाई थी। गभवत' इस गोष्ठी की अध्यक्षता प्रसाद जी ने की थी। मंच पर एक ओर पडिन जनाईन प्रमाद झा 'द्विज' और दूसरी ओर हितैषी जी, पं० पद्मकान्त मालवीय आदि कविगण विराजमान थे। पद्मकान्त जी का अचानक गला खराब हो गया था वह भुतडा सुना कर हट गये थे और किसी भी प्रकार स-सुर पद्धति छोड़ कर अ-सुर प्रणालो अपनाने को तैयार न हुए थे। 'प्रसाद' जी ने मन्द्र-मधुर स्वर से संभवत 'आंसू' के कुछ छन्द सुनाये थे । मभवतः इमलिए फि में तत तक प्रसाद-साहित्य का स्वल्पाश ही पढ़ पाया था : म्वर्ग के खंडहर ।' नामा ? हानी, जो सुधा के विशेषाङ्क मे छपी थी और अमगोधित ऑसू कुछ छन्द, जो आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की कक्षाओ मे अप्रस्तुत विधान ३ सिलसिले मे सुन थे। प्रस्तुन-अप्रस्तुत तो मैंने संस्कृत मे बहुत पढे थे; किन्तु आलोडन और उत्ताप के उन्नयन की जो दो अद्भुत छवियाँ तब मानस-पट पर अङ्कित हुई पा, नह अब भी अमिट है । उनमे एक निराला की है, दूसरी प्रसाद की : द्वेष, दम्भ, दुख खिले सकल अङ्ग मनोहर; चितवन संमृति की सरिता तर खडी प्रेम के सिन्धु-किनारे ! देख दिव्य छवि लोचन हारे !! -निराला विस्मृत-समाधि होगी वर्षा कल्याण-जलद की, सुख सोए हुआ-सा, चिन्ता छुट जाय विपद की! पर जय पा कर नव पर थका -प्रसाद जब स्वयं प्रमाद जी झूम-झूम कर सुना रहे थे, तब मुस्कान और प्रकाश में डूबे हुए वे छन्द अवश्य रहस्य भरे 'आंसू' के ही होगे ! जो हो, मैं इस-ऐसी गति संस्मरण पर्व : १९