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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३२५

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'न विषमूर्तेरवधार्यते वपुः' • इस घड़ी वह एक गाढ़े की लुंगी, और उसी कपड़े की एक आधी बांह की गंजी जिससे रुद्राक्ष शाजता हुआ-सा और काठ की चट्टी पहने हुए गुलाब, सोनजुही, बेला, रजनीगन्धा और मुकुलित मालती के कुञ्ज में सिंचाई के झरने के साथ विचर रहे थे। अप्रत्याशित रूप में निराला को उपस्थित देख स-संभ्रम बारादरी में आ गए। जैसे कपास के गोले को हवा के झीने सकोरे ने गन्ध की उंगलियों से भरपूर छू दिया हो; जैसे हरी-हरी पत्तियों के झूमर से किसी फूल के दिए की लौ झिलमिला उठी हो, मेरे अन्तर के रोएं-रोएं पुलकित हो रहे थे। कल निराला, आज प्रसाद, यह उन्मत्त आह्लाद कहां अटता ! निराला जी मेरे बारे मे वह सब कह गए जो केवल अद्भुत रस के विभाव-अनुभाव में आता है; कन्तु प्रसाद जी की निस्संग समरसता की आँखें मुसकिराती ही रही। अब निराला जी मेघदूत के कुछ श्लोकों की अपनी मौलिक व्याख्या सुराने लगे। (इसी दरम्यान जलपान-पान का एक दौर भी खत्म होने को आया) फिर जानना चाहा कि प्रसाद जी को वह व्याख्या कैसी लगी। इस बार उन आँखों मे एक अजब-सी चमक पैदा हुई और मुसकान पर पान का रंग चढ़ गया। मरा आर इंगित कर बोले : 'आचार्य' जानकीवल्लभ से पूछ देखिए । मेरे अबोध कैशोर ने इसे अपना चौरंग उड़ाना समझा। झड़े दिमाग से संस्कृत का एक क्लिष्ट और लच्छेदार वाक्य बोल गया। प्रसाद जी ठठाकर हँस पड़े। आनन्द के प्रवक्ता के रूप में प्रसाद जी प्रसिद्ध है; किन्तु उनका सत्, चित् रूप देखनेवालों ने ही देखा होगा। प्रसाद जी अकर्मण्य भावुक न थे, उनका कर्म भी तुमुल, कोलाहल कलह न था। भाव और कर्म के सौन्दर्य एवं शक्ति से उनके शील ने श्रद्धा की सृष्टि की थी। निराला उन्हें 'श्रद्धादेवो वै मनुः' यो ही नही कहते थे। काशी नागरी प्रचारिणी सभा मे श्री मैथिलीशरण गुप्त को रवर्णजयन्ती मनाई जा रही थी। सभा प्रसाद, निराला, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रायकृष्णदास, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, पं० वाचस्पति पाठक,--ऐसे प्रथम श्रेणी के साहित्यकारों से खचाखच भरी हुई थी। वक्ताओं में कोई-कोई जनता के नारे लगा कर गुप्त जी को टैगोर से भी श्रेष्ठ सिद्ध कर रहे थे। अवश्य घोर असाहित्यिक और राजनीतिक व्याख्यान ही नहीं हुए, कुछ 'मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता' के निदर्शक कलात्मक प्रवचन भी हुए। निराला का प्रवचन ऐसा ही था; किन्तु जाने किस जन्म का वैर सधाना था, मंच छोड़ते-छोड़ते, बिना किसी पूर्व सूचना के, अचानक एक शिगूफा छोड़ दिया कि अब उनके बाद, आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री गुप्त जी पर संस्कृत में भाषण करेंगे। प्रसाद जी की वही मार्मिक मुस्कान कोंच कर मुझे उठने के लिए उकसाने लगी। और उन्नीस वर्ष का आचार्य वैसे धुरन्धर दिग्गजों के बीच दांतों में तिनका लेकर खड़ा हो गया। संस्मरण पर्व : २१