सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मैं धाराप्रवाह संस्कृत बोल सकता था : बगैर कामा, फुलस्टाफ के बोलता चला गया। सभा में सन्नाटा छाया हुआ था; निराला हौसला बढ़ा रहे थे; भले-भले,बेड़ा पार लग गया। आज पहली बार प्रसाद का आशीर्वाद बरसा। निराला बोले : और मैं क्या कहता था ? अब सराय गोवर्धन मेरा पुण्य तीर्थ हो गया। उनकी अगाध विद्या, संश्लिष्ट बोध और भावुक बौद्धिकता ने मेरी जड़ चेतना को निर्मल आलोक का दुर्लभ दान दिया। मैंने देखा, संस्कृत के आर्ष ग्रन्थो की ओर उनका अधिक झुकाव था, वह सरता-बरता कर काम नही चलाते थे। तब तक मै भागम-निगम को नाम मात्र से जानता था, वह निष्णात थे। कहते थे, परवर्ती साहित्य में उनकी कम रुचि है। प्राकृत, पालि और अपभ्रंश के भी वह विशिष्ट अध्येता थे। कुल मिलाकर उन्हे अन्धकार से प्रकाश काढ़ लाने मे अधिक आनन्द आता था । अन्धकार का.अर्थ धुन्ध- धुआं नही, सुदूर अतीत की निर्धूम आग है, जिससे सत्य की मनातन ज्योति का आविष्कार कर वह मानवता को विजयिनी बनाने के आशी-अभिलाषी थे। न उनमें शक्ति या साधना की कमी थी, न उनका लक्ष्य घुघला था। यह जो गोचर से अगोचर तक का प्रसार है, अव्यक्त आदि मे अव्यक्त अन्त तक को समेट कर व्यक्त मध्य को बृहत्तर और महत्तर रूप मे ग्रहण रिने का विशिष्ट आग्रह है, इसे ही उनका 'रहस्य' समझना चाहिए। कोरी समकालीनता टुच्ची और पोली है, सौन्दर्य-विहीन शक्ति विध्वंसात्मक और स्मशान की ऊष्मा लिए होती है, इसे प्रसाद ने अपने शाश्वत साहित्य मे विविध रूपों में व्यक्त किया है। ऐतिहासिक दृष्टि वैज्ञानिक दृष्टि है, तुकबंदियो मे इतिहास दुहरा देने से कोई प्रसाद नही हो जाता। उनका इतिहास-दर्शन जीवन-दर्शन है, वह जीवन-दर्शन जो मानव को आनन्दमय देखता है जब कि आनन्द विराट विश्व-प्रकृति से समरस होने पर ही उपलब्ध होता है। दूसरे शब्दो मे प्रसाद का साहित्य मानव जाति को श्रद्धा- पूर्वक दिया हुआ उदात्त आनन्द (आत्म-) दान है। एक दिन प्रसाद जी निराला जी से मिलने आए। उन-दिनो गीतिका' छप रही थी और निराला जी पं० वाचस्पति पाठक के अतिथि थे। इस घड़ी वह कुँवर चन्द्रप्रकाश सिंह के यहां हम लोगों के साथ बैठे बाते कर रहे थे, इस कारण प्रसादजी पही आ विराजे। निराला अलोकिक और प्रसाद लोक वेद मे रयि और प्राण के-से सहज समन्वय के सिद्ध साधक। जैसे जीवन का प्रत्येक क्षण एक अस्पष्ट आवरण से ढंका है और उम अस्पष्ट को जीने योग्य बनाने के लिए मानव सदा उत्सुक और मचेष्ट रहता है, कुछ ऐसे ही उनके आलाप-संलाप के अगम गहन की जिज्ञासा का ज्वार २२ : प्रसाद वाङ्मय