सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेरे छिछले में आया हुआ था। देखा, तोतों को रटानेवाले की पच्ची खोपड़ी ही नहीं जिलाई थी क्होंने। यहां तो कुछ ऐसी बात थी कि तलवार की आग से बचा तो दागी, न बचा तो गया। सीधे-सादे लटके तो खैर, मुझे फूटी आंखों न भाए, फिर इन्होंने 'विद्वत्ता' की सनद भी नहीं हासिल की थी ! अवश्य ज्ञान के ऐसे विकसित और परिष्कृत स्वर ढोल से नही फूटते । कालिदास ने जैसे मेरे ही लिए लिखा है : "द्विजाति-भावादुपपन्नचापलः ।" चुप्पी साधना अपने बस का रोग नहीं है। मैंने वात फेरने की कोशिश की : "संस्कृत नाटकों में स्वाभाविकता लाने के लिए पात्र-भेद से भाषा-भेद देखने में आता है। मृच्छकटिक में ऐसी अनेक प्राकृत भाषाएँ व्यवहृत हुई हैं जो दूसरे नाटकों में नही हैं। भास और कालिदास ने भी सर्वत्र संस्कृत के साथ प्राकृत का व्यवहार किया है, किन्तु आपके नाटकों में ऐसा नहीं है । 'चन्द्रगुप्त' में तो विदेशी युवती भी अत्यन्त परिष्कृत भाषा बोलती और आध्यात्मिक स्तर का राष्ट्रीय गीत गाती है।... 'संस्कृत के अलावा और भी तो भाषाएं है ? शेक्मपियर ने अंग्रेजी कहाँ छोड़ी है ? गिरीशचन्द्र या डी० एल० राय बंगला में ही तो लिखते हैं, क्या वे अच्छे नाटककार नहीं हैं ? सोचिए तो सही, सिकंदर और सिल्यूकस से किस भाषा में बातें करवाता? चाणक्य किस भाषा में बोलता? फिर इतनी सारी भाषाओं का प्रयोग करने पर मेरे नाटक नाटक ही रहते या भाषा विज्ञान के ग्रन्थ बन जाते ?..."(हँसी) 'रही बात विदेशी तरुणी की। मैं पूछता हूं, क्या भारत के इतिहास-भूगोल का सामान्य परिचय ही राष्ट्रीय-बोध होता ? भारत की संस्कृति, भारत की आत्मा को समझे बिना किसी पर भारतीयता का रंग क्या चढ़ेगा? और यदि मैं उसे इसी रंग मे सराबोर दिखलाना चाहता था, तो दूसरा उपाय भी क्या था ?' X X 'आप लाक्षणिक पद्धति पर अधिक बल देते है, इससे आपकी अभिव्यक्तियों में चित्रात्मकता बहुत है; किन्तु कालिदास व्यंजकता के कायल थे और प्रकृति तथा मानव प्रकृति के अनुपम चितेरे भी...' 'मुझे कालिदास से भारवि अधिक पसंद है।' मैंने किलकारी मार कर कहा : 'भारवेरर्थगौरवम् ! अब सहज और अलंकृत का अन्तर दुर्बोध न रहा । मेरे बहुतेरे संगयों का समाधान मिल गया।' अब तक सुनी और देखी का विभेद अमरनाथ की हिम-प्रतिमा-सा सुस्पष्ट हो चुका था। सुना था, प्रसाद जी किसी भी कवि सम्मेलन मे नही जाते; कभी काव्य- पाठ नहीं करते, मैंने उन्हें पहली बार कवि-सम्मेलन में काव्य-पाठ करते हुए ही देखा। सुना था, वह किसी सभा-समिति में नहीं जाते, मैं गुप्त जी की जयन्ती के X संस्मरण पर्व:२३