पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३३

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- - जो हो, एक बार मिलकर उनसे मिलने की इच्छा रही। दूसरे दिन में उनके यहां जाने को था कि वे स्वयं कृष्णदासजी की कोठी पर आ गये। ठिगना परन्तु गठा हुमा सुन्दर शरीर, विशाल भाल और गौर वर्ण । मुंह में पान और अधरों पर मुसकान । धोती, कुरता और कौशेय की चादर। आकर्षक व्यक्तित्व । स्वल्प समय में ही मुझे ऐसा लगा मानो हम लोग चिर परिचित हैं । जब-जब मैं काशी जाता प्रायः प्रतिदिन उनसे मिलना होता और घण्टों बैठक जमती। कभी कृष्णदास की कोठी पर, कभी उनके बंगले पर, कभी प्रसादजी के घर और कभी उनकी दूकान पर। कितना आमोद-विनोद होता कह नही सकता। बीच-बीच में खान-पान भी। पान धूम्र तक ही। तब मैं तम्बाकू पीता था। खाने के विविध प्रकार और प्रत्येक बार नये-नये । वे स्वयं पाकपटु थे। वैसे ही जैसे वाक्पटु । एक बार ही मैंने हासपरिहास मे उन्हे क्षुब्ध होते देखा। होली के दिन थे। इस. पर्व पर लोग अपने इष्ट मित्र और व्यवहारियों के यहां आते है और दूसरे पर रंग गुलाल से होली खेलते हैं फिर बैठ कर हास-परिहास करते हैं। उस दिन हम लोग भी प्रसादजी के यहां गये थे। साथ में कृष्णदास के प्रमुख कर्मचारी श्री गुरुधन सिह भा थे। बातचीत मे बहुत शिष्ट । हज़र-हजूर कहकर उन्होंने भी व्यंग्य-विनोद में भाग लिया। बात कुछ बढ गयी। उत्तर-प्रत्युत्तर ने वाद-विवाद का रूप धारण कर लिया। एक बार कुछ हतप्रभ से होकर प्रसादजी ने एक अप्रिय बात कह दी । मैंने साग्रह उन्हें शान्त किया। गुरुधन सिंहजी रंग-कुरंग देखकर पहले ही मौन हो गये थे। प्रसादजी का मुख लाल हो गया। उस दिन छनी भी कुछ गहरी थी। एक कारण यह भी हो सकता है कि उनके अभिजात्य को ठेस लगी हो। अन्तत गुरुधनसिंहली कृष्णदास के वेतनभोगी थे और प्रमादजी नके अन्तरंग बन्धु । इसी समय वहाँ स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं० देवी प्रसाद कवि-चक्रवर्ती आ गये। मैं उनके विषय मे मुन चुका था और स्वयं उनसे मिलना चाहता था। प्रसाद जी ने परिचय कराया। मैं नहीं जानता था कि वे हिन्दी मे भी कविता लिखते हैं। कितने ही कवित्त पढ़कर उन्होंने नया वातावरण उत्पन्न कर दिया। आज भी उसकी गूंज मेरे मन मे उठती है : एक पग नाव एक पग है करारे पं प्रसादजी काशी के प्रतिष्ठित नागरिक थे और वहां सब लोग उनका आदर करते थे। उनके टोले के लोग तो उन्हे अपना अग्रवर्ती ही मानते थे। उनसे वे प्राय: भोजपुरी में ही इस प्रकार आत्मीयतापूर्वक बातचीत करते थे कि मैं बार- बार सुनने को उत्सुक रहता था। साहित्यकारों का भी एक दल उनका अनुगत था। एक बार हंसकर उन्होंने कहा था, किसी की आलोचना प्रत्यालोचना का रस लेना हो तो मुझसे कहो और तटस्थ होकर कोतुक देखो। कहने को तो पह बात संस्मरण पर्व : २९