पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३३९

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कहते-कहते उनका मुंह तमतमा गया और जब तक मैं कुछ कहूं-अवज्ञापूर्वक मुंह फेरकर वे चल दिये । मैं स्तब्ध रह गया। मुझे भी पीड़ा हुई, परन्तु मैं क्या करता। कृष्णदास ने यह घटना स्वयं देखी अथवा मैंने उन्हें सुनायी थी, मुझे स्मरण महीं। वे दोनों और के भले समाचार चाहने वाले थे। किन्तु उस समय इस सम्बन्ध में उन्होंने मौन रहना ही. उचित समझा। हो सकता है, उन्हें भी मेरे प्रति कुछ सन्देह रहा हो। दूसरे लोगों की बात मैं नहीं जानता, श्री वाचस्पति पाठक इस विलगाव पर हृदय से व्यथित हुए। मेरा मन भी उस बार काशी में न लगा और मैं वहां अधिक न ठहरा। कुछ दिन पश्चात् मैंने देखा-'आज' पत्र में 'साकेत' को लेकर अनेक बार टिप्पणी की गयी। मेरे मन में कभी यह बात नहीं आई कि इस व्यंग विद्रूप के प्रेरक प्रसादजी हो सकते हैं। हां यह हो सकता है कि लेखक ने यह समझा हो कि इससे प्रसादजी प्रसन्न होंगे। पाठकजी तब तक काशी से प्रयाग नहीं गये थे और समय-समय पर इस भ्रम के निराकरण की चेष्टा भी वे अवश्य करते रहे होंगे। अन्त में उनका प्रयत्न सफल हुआ। मैं फिर काशी गया और पाठकजी के उद्योग से हम दोनों पुनः शान्ति कुटीर में मिले। आवेग से मेरे आंसू आ गये और धृष्टता क्षमा हो, यह कहते हुए कि तुमने मेरे साथ न्याय नहीं किया, मैंने उन्हें एक चपत मारी और उनसे लिपट गया। वे मुझे थपथपाते रहे । पाठकजी के अनुग्रह से मैंने इस बार अपने को पहले से भी अधिक प्रसादजी के निकट अनुभव किया । लखनऊ में एक बड़ी-सी प्रदर्शिनी थी। और मेरे लिए भी कुछ आयोजन किये गये थे। हिन्दुस्तानी एकेडेमी की बैठक भी उम बार वहीं हुई थी। एक कवि- सम्मेलन का भी प्रबन्ध किया गया था। ओरछा के महाराज वीरसिंह देव उसका उद्घाटन कर रहे थे। प्रसादजी भी लखनऊ आये थे। कवि-सम्मेलन के संयोजक से मैंने कहा-प्रसादजी के स्थान पर जाकर आपको उनको सम्मेलन में आने के लिए आदरपूर्वक आग्रह करना चाहिए । संयोजक ने कहा-निमन्त्रण तो भेज दिया गया। मैंने कहा गह पर्याप नहीं। आपको स्वयं वहां जाना चाहिए। वे जानते थे कि प्रसादजी के और मेरे बीच एक तनाव हो चुका है । सम्भव है वह अब भी शेष हो । स्वयं भी वे प्रसादजी से कुछ अनख मानते थे और अपने आपको किसी से न्यून नहीं समझते थे। परन्तु यह तो साधारग शिष्टाचार की बात थी। उन्होंने कहा-अच्छी बात है, मैं स्वयं जाता हूँ। वे गये भी, परन्तु न जाने कहाँ ? प्रसादजी के स्थान पर नहीं गये । जब मैं सम्मेलन के मण्डप के द्वार पर पहुंचा, तब मैंने उनसे फिर पूछा- आप प्रसादजी के यहाँ हो आये? उन्होंने कहा नहीं जा सका, कहां-कहाँ जाऊँ ? संस्मरण पर्व : ३५