-लेकिन काम काम है ! वह किसी सूर्य के उदय और अस्त की परवाह नहीं करता-पूरा होना ही उसका लक्ष्य है, सार्थक होना ही उसका उद्देश्य है। निराशा को सिद्धान्त बनाकर उसकी बैसाखी पर अपने अभाव का भार रखते हुए, में इन दुश्चिन्ताओं की भीड़ मे कहां आगे बढ़ पाऊँगा ? नदी में डूबकर भी भला किसी ने जीवन देखा है ? धारा में बहती हुई लाश ही क्या प्रगति का प्रतीक है ! केवल पूरा हो जाना ही क्या जीवन का उद्देश्य है ? मेरा मन चट होकर भी अभी तक लेतना से दूर नहीं गया। पिछली ज्ञान- कमाई के संस्कार नये जीवन के लिए आज भी बल देते हैं। आज भी अखबार के पनों पर फैली हुई निराशा और मेरे मन के अवसाद को पीछे ढकेल कर महाकवि का स्वर मेरी क्रिया-शीलता का हौसला बढ़ाता है- कर्म-यज्ञ से जीवन के सपनों स्वर्ग मिलेगा, इसी विपिन में मानस की का आशा का कुसुम खिलेगा। प्रसादजी के इस दृढ विश्वास की पृष्ठभूमि में उनके जीवन की गम्भीर साधना बोल रही है। परीक्षा की कठिनतम घड़ियो मे भी उनकी आशावादिता अडिग रही, उनका कर्म-यज्ञ अटूट क्रम से चलता रहा। पिता और बड़े भाई के स्वर्गवास के बाद दुनियादारी के क्षेत्र मे उन्हें कठिन-से-कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। पुराने घराने की नाम और साख का प्रश्न, कर्ज का बड़ा बोझ, कुटुम्बियों के कुचक्रों की दुश्विन्ता-इन कठिन समस्याओं के जाल मे जकड़े हुए १७ वर्ष के युवक प्रसाद को जो शक्ति उबारती रही, वह थी उनकी अनवरत साहित्य-साधना, उनकी निष्ठा । विषम परिस्थितियो में रहते हुए भी प्रसाद पागल न हुए, कुचक्रियों से बैर साधने हेतु स्वयं कुचक्री भी न बने, दुनियादारी के दलदल मे पूरी तौर पर फैसकर भी हिम्मत न हारे और अपनी 'स्पिरिट' को तरोताजा रखने के लिए उन्होंने पठन-पाठन और साहित्य-रचना की वृत्ति को अपनाया-इस बात को समझने के लिए हमें उनके वातावरण और संस्कार को समझना होगा ! धनी और कीर्तिशाली घराने मे उन्होंने जन्म पाया । दानियो के घर मे जन्म लेनेवाला युवक किसी के आगे हाथ नही पसार सकता। इसीलिए विषम परिस्थितियों मे घेरकर उन्हे स्वावलम्बी बनाया। इसके लिए सौभाग्यवश उन्हें बचपन में अच्छे संस्कार प्राप्त हो चुके थे। अच्छे शिक्षको द्वारा वेदों-उपनिषदों का अध्ययन, काशी के धर्मनिष्ठ घराने के छोटे उत्तराधिकारी के एकान्त क्षणों को विचारों की स्फूति से भरता रहा। बुरे समय मे आस्तिक मनुष्य स्वाभाविक रूप से उदारता हो जाता है । उसकी करुणा, भक्ति का रूप धारण कर विश्वात्मा के प्रति समर्पित होती रहती ४८:प्रसाद वाङ्मय
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