है । सत्रह वर्ष की अवस्था में जब प्रमादजी घर के बड़े बनकर दुनियादारी की कठिन कसौटी पर चढ़े, तब उनके विद्याभ्यास का क्रम चल ही रहा था। पढा हुआ पाठ तत्काल ही मन भरने के काम आ गया। उनका चिन्तन ठोम बना। 'कामायनी' के महाकवि का परमोत्कर्ष, जीवन की पहली कठिनाइयों की शिला पर विधना के लेख की तरह अंकित हो गया था। उनका दार्शनिक रूग, कवि-हृदय और कठिन साहित्य-साधना का प्रारम्भिक अभ्यास इन्ही बुरे दिनों में विकमित हआ। प्रसादजी की कविता चोरी-छिपे शुरू हुई। उन दिनों बड़े घर के लड़कों का कविता आदि करना खराब माना जाता था। लोगों का खयाल था कि इससे लोग बरबाद हो जाते है । और वाकई बरबाद हो ही जाते थे ! रीति काल के अवसान के समय, ब्रजभाषा के अधिकांश कवियो के पास काव्य के नाम पर कामिनियों के कुवों और कटाक्षों के अलावा और बचा ही क्या रहा था ! ऐसे कवियों में जो गरीब होते थे, वे मौके-झप्पे से अपनी नायिकाओं को हथियाने की कोशिश करते थे, और अमीर हुए तो फिर पूछना क्या ! रुपयों के रथ पर चढकर नायिकाएँ क्या, उनके मां-बाप, हवाली-मवाली तक सब कविजी के दरबार मे जुट जाते थे। इसलिए बड़े भाई राम्भुरत्न जा ने उन्हें कविता करने मे बरजे रखा। परन्तु प्रमाद की काव्य-प्रेरणा में कोरा जवानी का रोमांस ही नही था, उपनिषदो के अध्ययन के कारण ज्ञान से उमगी हुई भावुकता भी थी। इन्ही दोनों विशेषताओं ने प्रसाद को आगे चलकर रहस्यवादी कवि बनाया। परन्तु रहस्यवादी के नाते वे उलझे हुए नही थे। प्रसाद का एक सीधा-सादा मार्ग था, जिस पर चलकर उन्होंने अपनी महाभावना का स्पर्श पाया। प्रसाद चोरी से कविताएँ किया करते थे, इससे सिद्ध होता हे कि उन्हें अपनी लगन की बातों को चुराकर अपने तक ही रखने की आदत थी। यह आदत सुसंस्कारों का प्रभाव पाकर मनुष्य को अपनी लगन मे एकान्त निष्ठा प्रदान करती है। प्रसाद की साहित्य-साधना मे हर जगह निष्ठा की पक्की छाप है। कवि, नाटककार, कहानी-उपन्यास, लेखक और गम्भीर निबध लेखक-किसी भी रूप में प्रसाद को देखिये-उनकी चिन्तन-शक्ति साहित्य के सब अंगों को समान रूप से मिली है। रचना कोटी हो या बड़ी- निष्ठावान साहित्यिक के लिए सबका महत्व एक-सा है। बीसवीं शताब्दी के पहले बारह भारत में राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक चेतना की दृष्टि से बड़े महत्त्वपूर्ण थे। वह सारा महत्त्व युवक प्रसाद के भावुक हृदय और उर्वर मस्तिष्क ने ग्रहण कर लिया था। विशेष प्रकार के संस्कारों में पलनेवाले युवक, ऐसी अवस्था में आम तौर पर अतीत के गौरव से भर उठते हैं। वैसे तो हर जगह के निवासी को अपने देश और उमके इतिहास से बहुत प्यार ४ संस्मरण पर्व । ४९
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५३
दिखावट