पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५४

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कुछ श्लोक होता है। पर इस देश में एक अजीब जादू है। हमारे इतिहास की परम्परा महान् है। जीवन की अनेक दिशाओ मे हम अपने ढंग से पूर्णता को प्राप्त कर चुके हैं । यह चेतना बीसवी शती के शैशव काल मे, स्वातत्र्य-गंगा की नई लहर से प्रसाद ऐसे मनीषी महाकवि का हृदय अभिषिक्त न करती तो और किसका करती। प्रसादजी ने मुझे भी एक ऐतिहासिक प्लॉट उपन्यास लिखने के लिए दिया था। उस दिन दो-ढाई घटे तक बाते होती रही। भाई ज्ञानचन्द जैन भी मेरे साथ थे। उपन्यास, नाटक और कहानियो मे घटनाओ, चरित्रो या चित्रो के घात-प्रतिघात की प्रणाली मनोवैज्ञानिक आधार पाकर किस प्रकार सप्राण हो उठती है, यह उस दिन प्रसादजी की बातो से जाना । वे बातो को बडी सहूलियत के साथ समझाते थे। उन्होने किसी पुस्तक से खोजकर 'कलियुग राज वृत्तान्त' नामक ग्रन्थ सुनाये और लिखवा दिये। उन दिनो वे 'इरावती' लिख रहे थे। वे रूलदार मोटे कागज पर लिग्वते थे। फुलस्केप कागज को बीच से काट कर उन्होने स्लिपे बनायी थी। उन्ही स्लिपो मे से एक पर वे श्लोक मैंने लिख लिये । चन्द्रगुप्त प्रथम का कुमारदेवी ओर नेपालाधीश की सुता के साथ विवाह होने का गजनीतिक इतिहास ही उन श्लोको मे अकित था। मैने उत्माह से भर उन्हें वचन दिया कि जाते ही लिखने बैलूंगा। सन् छत्तीस मे वे जब प्रदर्शिनी देखने के लिए स्वय लखनऊ आये, तब मैं उनसे मिला था। मेरे वचन देने के लगभग साल भर बाद उनसे यह पहली भेट हुई थी। उस साल उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था-भरा हुआ मुह, कान्तियुक्त गौर वर्ण, चश्मा और माथे की रेखाओ की गभीरता, उनकी मरल हंसी के साथ घुल-मिलकर दिव्य रूप धारण करती थी। मैंने प्रणाम किया, उन्होने हंसते हुए उत्तर मे कहा- कहिये, मौज ले रहे है ? यह मेरी जोशीली प्रतिज्ञा का ठण्डा पुरस्कार था। बरसो बाद एक फिल्म कपनी के लिए उस प्लॉट के आधार पर मैंने एक सिनेरिओ तैयार किया था। जहाँ तक मेरी धारणा है, कहानी अच्छी बनी थी। सन् ४५ मे 'लडाई' खत्म होते ही काम्ट्यूम पिक्चरो का निर्माण कार्य एकदम से ठप पड गया और वह कहानी उनके तात्कालिक उपयोग की वस्तु न रही। इसके साथ-साथ वह मेरे भी किसी काम की न रही-वह बिक चुकी थी। अपना वचन निभा न पाने की लज्जा से आज भी मेरा मस्तक नत है। शायद यह लज्जा किसी दिन मुझे कर्त्तव्य-ज्ञान करा ही देगी और मैं कृतकृत्य हो जाऊंगा। प्रसादजी जैसे उदार महापुरुष की याद आज के दिनो मे और भी अधिक आती है, जबकि दूसरी लडाई के अंत मे नाटकीय रूप से अवतरित होकर एटमबम ने सबसे पहले मानव हृदय की उदारता का ही संहार कर डाला। इसी एटमबम की ५० : प्रसाद वाङ्मय