पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

संस्कृति में पले हुए मुनाफाखोरी और एक-सत्ताधिकार के संस्कार आज जन-मन पर शासन कर रहे हैं । 'पुस्तकालय सूने पड़े हैं, सिनेमा हॉल मनोरंजन के तीर्थ बन गये हैं। गली-मुहल्लों में प्रेस के सस्ते संस्करण फैल गये हैं। एक युग पहले तक जहां मैथिलीशरण की 'भारत-भारती' और प्रसाद के 'आँसू' की पंक्तियाँ गाते-गुनगुनाते हुए लोग शिक्षित मध्यम वर्ग के नवयुवकों में अक्सर मिल जाते थे, वहाँ अब प्रसाद का साहित्य पढ़नेवाले शायद मुश्किल से मिले ! उनकी बातें जाने दीजिये, जिन्हें परीक्षा से मजबूर होकर प्रसाद को पढ़ना ही पड़ता है। एटमबम की संस्कृति का हमारी सभ्यता पर यह प्रभाव पड़ा है। लेख पूरा करके अंतिम कागज समेटते हुए फिर अखबार की मोटी-मोटी सुखियों पर नजर गई। नजर पड़ते ही वह पुराना लगा। अखबार सिर्फ दो घण्टे जिन्दा रहकर बाद में मुर्दा भूत बन जाता है और आलम के सिर पर नाचा-नाचा घूमता है। इसी भूत से ग्रस्त समाज की आत्मा को बल देने के लिए प्रसाद आज भी जीवित हैं और सदा रहेंगे -समय बदल जाएगा । समय तो बदलता ही रहता है ! 1 संस्मरण पर्व : ५१