पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३५६

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प्रसादजी -वृन्दावनलाल वर्मा (एक वर्शन) चालीस वर्ष हो गये तब की बात है। श्री मैथिलीशरण गुप्त के साथ काशी यात्रा का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ। राय कृष्णदासजी हमारे पुराने मित्र है, उन्ही के यहाँ हम दोनों ठहरे। राय कृष्णदास कला-भवन की स्थापना कर चुके थे। उसे देखना था और प्रसिद्ध वीणा-वादक सन्नू बाबू से भी वही भेट करनी थी। भला श्री जयशंकर प्रसाद के घर हम क्यो न जाते ? वह विख्यान कवि और लेखक; सुंघनी माहु के नाम से उनका वश प्रसिद्ध था और मे खाता था पान तम्बाकू ! बडी लौ लगी उनके पास पहुँचने की। और एक दिन गय कृष्णदास के साथ हम लोग उनके यहां गये । उन्हे देखते ही मैं तुरन्त प्रभावित हुआ। बडी मुन्दर आकृति, खूब गठा हुआ सुदृढ शरीर, आँखो मे चमक और माथे पर दमक ! मुझे कुश्ती, व्यायाम इत्यादि का शौक रहा है। प्रसादजी के चौड़े सीने और भरी भुजाओं से अपने अवयवों की तौल भीतर-भीतर करने लगा। मन आह्लाद मे भर गया जैसी इनकी देह सुगठित और बलिष्ठ है वैसी ही प्रतिभा भी। तभी तो हिन्दी साहित्य को इतना ऊँचा उठा रहे है। इतना उजागर कर रहे है । और करेगे। मेरी धारणा उनकी सराहना के साथ प्रवल हुई। उनके साथ काफी समय तक बात होती रही । थोडी-सी याद रह गई है। बोले-कहानियां लिखते हो सो तो खैर ठीक ही है, उपन्याम लिखो न ।' "लिखने का संकल है, इतिहास और परम्परा की खोजबीन करता रहता हूँ। सामग्री इकट्ठी कर लेने के बाद अवश्य लिखूगा' - मैंने कहा । श्री मैथिलीशरण गुप्त और राय कृष्णदासजी से मेरी बहुत बेतकल्लुफी चुहल और हंसी चलती ही है। 'अरे यह उपन्यास लिखेगा या वकालत पर मिर खपाता रहेगा ? ---गुप्तजी ने कसा और खिलखिलाये। राय कृष्णदास ने अपनी स्वाभाविक मुसकान के साथ जोडा-'उपन्यास लिखेगा, कचहरियो से मुवक्किलों का कूडा-करकट बटोरेगा और फिर रंगेगा कागज !' 1 ५२: प्रसाद वाङ्मय