लिए जर्दा, किमाम, इत्र आदि भी अपनी देखरेख मे बनवाते थे। अधिकतर देशी रजवाड़े और जमीवार रईस ही उनके बंधे ग्राहक थे। किमाम और इत्र के तैयार होने पर छोटी-सी शीशी में अन्तरंगी मित्रो को प्रेमोपहार भी दिया करते थे । जाड़े में जो मुश्क अम्बर (कस्तूरी का इत्र) बनाते थे वह लिहाफ मे लगने पर पूस-माघ के जाड़े में भी पसीना पैदा करके अपना कमाल दिखाता था। उत्तम श्रेणी का किमाम भी वैसा ही जौहर दिखाया था। वीड़े पर सीक से उसकी लकीर खीच देने से जाड़े की रात मे भी ललाट पर पसीना आ जाता था। और गरम पोशाक उतार देनी पड़ती थी। काष्ठोधियों और जडी-बूटियो के गुणों को बखानते समय वैद्यक- ग्रन्थों के श्लोक कहने लगते तो वैद्यराज ही प्रतीत होते थे। बनारस के पुराने रईसों, पण्डितो, नर्तकों, लावनीवाजों, गुण्डों, गायिकाओ और फक्कड़ो को बहुत सी अद्भुत कहानियां सुनाया करते थे, जो मनोरंजक होने के साथ-साथ शिक्षाप्रद भी होती थी और जिनसे पता चलता था कि उस अतीत युग के गुणी और कलावन्त कितने उदार तथा निष्ठावान होते थे। रईसो की गरीब- निवाजी, पण्डितों का स्वाभिमान, नर्तको की नृत्य-निपुणता, लावनीबाजों की रचना- चातुरी, गुण्डों का निर्बलो की सहायता में सहयोग, गायिकाओ का मर्यादा-पालन और फक्कड़ों की गरीबपरवरी उनमे मुनकर उस युग का दृश्य मनश्चक्षुओं के सामने आ जाता था। मासिक हंस का जो 'काशी-अंक' निकला था उसमे उनके लिखवाये हुए कई ऐसे लेख छपे थे। उनके अभिन्न मित्रो मे भारत कला-भवन के जन्मदाता श्री राय कृष्णदासजी के पास भी पुराने संस्मरणो का खजाना है, परन्तु राय साहब से लेकर उसे साहित्य-भाण्डार में संचित्र करने वाला कोई नही है । मैं जब हिमालय का सम्पादक था तब मैंने राय साहब से प्रसादजी के सम्बन्ध में संस्मरणात्मक लेखमाला लिखवायी थी, पर सम्पादन कार्य से मेरे विरत होने के बाद यह लेखमाला अधूरी रह गयी। प्रमाद सम्बन्धी संस्मरण लिखने के एकमात्र अधिकारी राय साहब ही है। हिन्दी संसार को उनसे यह साहित्यिक धरोहर ले लेना चाहिए। प्रसादजी अपनी जवानी मे कुश्ती भी लड़ चुके थे। उनका कसरती शरीर बड़ा गठीला था। उन्होने मल्ल-विद्या का भी अध्ययन किया था। पहलवानों के अजीब किस्से तो सुनाते ही थे, दांव-पेच के बहुतेरे नाम भी उन्हें याद थे । कई व्यापार क्षेत्रों के दलालो की बोली मे कैसे-कैसे विचित्र अर्थबोधक शब्द है और उनका रूप कितनी सावधानी से गढ़ा गया है, यह भी वे बतलाते थे। सोनारो और मल्लाहों की बोली के रहस्य भी वे जानते थे। खेद है कि उस समय उनकी बातचीत का महत्त्व ध्यान मे नही आया। विशिष्ट व्यक्तियो के जीवन की दिनचर्या लिखते चलने का काम संस्मरण पर्व : ५९
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