पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३६४

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1 साहित्य को समृद्धि के लिए किया जाना चाहिए। यदि प्रसादजी की बात उस समय टोक ली गयी होती तो आज वे साहित्य की अमूल्य सम्पत्ति समझी जाती किन्तु उनके जीवनकाल मे ही उनका उत्कर्ष बहुतो को असह्य हो गया था। उनकी रचनाओ की कटु से कटु आलोचना होती रही, पर उन्होने कभी उस पर ध्यान न दिया । वे स्वान्तः सुखाय लिखते थे, अर्थ या यश की कामना से नहीं । इस निर्मम ससार ने जीते जी न प्रेमचन्द को परखा, न प्रसाद को और न निराला को ही। जब ये संसार से चले गये तब इनके गुणगान के साथ यह भी अनुभूत होने लगा कि साहित्य-क्षेत्र मे ये अमोघ मेधाशक्ति लेकर आये थे। प्रसादजी की जो अवज्ञा और उपेक्षा हुई वह किसी से छिपी नही है। पर हिन्दी को प्रसादजी कविना, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि के रूप मे जो निधि दे गये उसका मूल्याकन करके आज गौरव का अनुभव किया जा रहा है । जगत की यही परम्परागत रीति जान पडती है कि वह युग की विभूति को उसके विलीन हो जाने के बाद ही पहचानता है। प्रसादजी कभी किसी कवि-सम्मेलन मे नही जाते थे। मित्र-गोष्ठी मे मस्वर कविता-पाठ करते थे। गगा मे बजडे पर मित्रमण्डली को बड़ी उमग से गाकर अनेक कविताएं सुनाते थे, पर सार्वजनिक सभाओ मे कभी नही। गोरखपुर मे अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन 'प्रताप'-सम्पादक श्री गणेशशकर विद्यार्थी के सभापतित्व मे हुआ था। वहाँ के कवि-सम्मेलन की अध्यक्षता के लिए प्रसादजी के पास तार आया। तार म सभापति विद्यार्थीजी और राजर्षि टण्डनजी के नाम अकित थे। उसे पाते ही अन्यमनस्कता से उसको अलग रखकर बाते करने लगे। उनके परम स्नेहभाजन और हिन्दी के प्रसिद्ध कथाकार पण्डित विनोदशकर व्यास वही बैठे थे। व्यासजी ने उनसे बडा आग्रह किया कि स्वीकृति सूचना भेजकर अवश्य गोरखपुर चलिए, हम लोग साथ चलेगे। पर वे हंसकर बात टाल गये । किन्तु काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कोशोत्सव-स्मारक के अवसर पर जीवन मे केवल एक ही बार उनको सार्वजनिक समारोह मे कविता-गान करना पड़ा था। हिन्दी शब्दसागर के सम्पादको का सम्मान करने का जो आयोजन हुआ था और उसके साथ जो कवि-सम्मेलन हुआ उसके अध्यक्ष थे प्रसादजी के साहित्य गुरु महामहोपाध्याय देवीप्रसाद शुक्ल कविचक्रवर्ती । आचार्य श्यामसुन्दरजी के आग्रह पर भी अब प्रसादजी कविता-पाठ करने को तैयार न हुए तब उनके गुरु ने अध्यक्ष पद से आदेश दिया और अपने गुरु के आदेशानुसार उन्हे कविता-गान करना पड़ा। उनके ललित-मधुर कण्ठस्वर से सारी सभा मन्त्रमुग्ध हो रही। अपनी कविता गाते समय वे स्वयं भी भाव-विभोर हो जाते थे। ६०: प्रसाद वाङ्मय