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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३६५

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उस समय काशी में हिन्दी साहित्य के धुरन्धर महारथियों का बड़ा अच्छा जमघट था। सबके साथ उनका सद्भावपूर्ण सम्बन्ध था। एक बार प्रेमचन्दजी ने अपने 'हंस' में उनके ऐतिहासिक नाटकों पर सम्पादकीय मत प्रकट करते हुए लिख दिया था कि प्रसादजी प्राचीन इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ा करते हैं। किन्तु जिस समय यह मत प्रकाशित हुआ उस समय भी प्रेमचन्दजी सदा की भांति प्रसादजी के साथ बैठकर निर्विकार चित्तं मे साहित्यिक संलाप करते रहे। दोनों महारथियों में कभी किसी प्रकार का मनोमालिन्य अथवा वैमनस्य नही हुआ। उनकी तीव्र आलोचना करने वाले सज्जन भी उनके पास पहुंचकर यथोचित आदर-मान ही पाते थे। किसी के प्रति उनके मन में कोई रागद्वेष न था। उनकी अभ्यर्थना करने के लिए कई संस्थाओं से अनुरोध होते रह गये, पर वे सम्मानित होने के लिए कभी कही काशी के बाहर नही गये । एकान्त भाव से साहित्य समाराधन मे संलग्न रहकर ही सारा जीवन बिता दिया। प्रसादजी छायावाद और रहस्यवाद के युग मे उत्पन्न हुए थे। खडी बोली हिन्दी में ही कविता करते थे। किन्तु प्राचीन व्रजभाषा-काव्य के भी मर्मज्ञ थे। पुरानी कविताएं काफी कठस्थ थी। व्रजभाषा-साहित्य के बड़े अनुरागी और प्रशंसक थे। काशी मे होली के बाद 'बुढ़वामंगल' का महोत्सव गंगा की मध्य धारा में हुआ करता था। चैत की चटकीली चादनी मे प्रशस्त बजड़ो पर सजीले शामियाने में नृत्यगान का दर्शनीय आयोजन होता था। उन सुमज्जित बजड़ों के चारों ओर दर्शकों और श्रोताओ की नौकाएं रात-भर डटी रहती थी। प्रमादजी की नाव पर उनके साहित्यिक बन्धु भी संगीत का आनन्द लूटते थे। काशी की सुप्रसिद्ध गायिकाएँ सूर और तुलसी के विनय-पद जब गाने लगती थी, प्रमादजी भाव विह्वल हो उठते थे। एक दिन काशी-नरेश के बजड़े पर विद्याधरी ने जब सूर का पद (अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल) गाया तब प्रसादजी के सजल नेत्रो मे अनवरत अश्रु- धारा प्रवाहित हो चली। उनके घर पर दरवाजे के सामने ही जो शिव मन्दिर है, उसमें फाल्गुनी महा. शिवरात्रि को महोत्सव हुआ करता था। उनके परिवार की यह पुरानी परम्परा थी। उसमे अधिकतर साहित्यसेवियो का ही समागम होता था। उस गान-वाद्य के समारोह में भी काशी की कोई सर्वश्रेष्ठ गायिका केवल शास्त्रीय संगीत सुनाने आती थी। नृत्य नही होता था। पर गेय पद शुद्ध साहित्यिक आनन्द देने वाले ही होते थे। बड़े शान्त भाव से और बड़ी. शिष्टता के साथ वह उत्सव सम्पन्न होता था। इसी प्रकार अपने वंश की मर्यादा का निर्वाह वे प्रत्येक पर्व पर करते थे। श्रावणी पूर्णिमा (रक्षाबन्धन) के दिन चांदी और तावे के सब तरह के बड़े-छोटे सिक्कों की राशि अपने आगे लेकर बैठने थे। अधिकांश ब्राह्मणों को दक्षिणा बंधी बंधाई थी, संस्मरण पर्व : ६१