याद में 'प्रसाद' -रूपनारायण पाण्डेय प्रसादजी मेरे मित्र थे-इमे मैं अपना सौभाग्य समझता हूँ ! इस समय जब मैं उन पर कुछ पंक्तियां लिखने बैठा हूँ, उनकी वह भव्य मूर्ति मुझे अपने मानस-चक्षु के सामने स्पष्ट उभरती हुई दिखाई दे रही है। वह गौरवर्ण ठिगना, मांसल, किन्तु व्यायाम से चुस्त शरीर, वह चौड़े मस्तक पर शंकर की विभूति, वह मुखमण्डल पर प्रसन्नता की मरमता से भरी मुसकान, वह आँखो मे प्रदीप्त प्रतिभा की झलक, वह आडम्बरहीन पहनावा-पोशाक, वह मीठी हंसी और विनोद आज भी मुझे भूला नही, उनकी स्मृति आज भी तरोताजा बनी हुई है । प्रसादजी का एक उत्कृष्ट नाटककार, सहृदय कवि, श्रेष्ठ कहानी, लेखक, औपन्यासिक तथा विचारक के रूप में, तो प्राय सभी लोग कुछ-न-कुछ जानते हैं, किन्तु एक सच्चे कर्तव्यनिष्ठ मनुष्य के रूप में वे कितने बड़े थे-इसका ज्ञान शायद इने-गिने लोगों को ही होगा ! प्रसादजी की रचनाएँ पढ़कर ही यह जानकारी हासिल भी नहीं की जा सकती। यह अनुभव तो उन्ही कतिपय सोभाग्यशालियों को प्राप्त हुआ था-और हो सकता था-जो प्रतिदिन उनके निकट सम्पर्क में आते थे, उनके अन्तरग थे। प्रसादजी एक निःस्वार्थ साहित्यिक थे। वह जो कुछ लिखते थे, वह आत्मसुख, आत्मसंतोष के ही लिए। उन्होने आजीवन साहित्य की आराधना की, साहित्यिकों का सम्मान और सत्कार किया, किन्तु आत्म-प्रदर्शन अथवा आत्म-श्लाघा से सदा दूर ही रहे । वह साधारण-से-साधारण साहित्यसेवी की रचना को, अगर वह आकर सुनाने लगता था तो सुनते थे और उसे उत्साहित करने मे पश्चात्पद नहीं होते थे । प्रसादजी के यहाँ जो दो-एक पुरानी परम्परा के कवि उनके पिता और भाई के जमाने से आते थे, उनकी आवभगत और बिदाई मे प्रसादजी कोई त्रुटि नही होने - देते थे। - प्रसादजी को आत्म-प्रदर्शन की,रुचि नही थी, इतना ही कहना ठीक न होगा। मैं तो समझता हूँ, उन्हें आत्म-प्रदर्शन से एक प्रकार की चिढ़ या घृणा-सी थी। इसके फलस्वरूप वह काशी में होनेवाले साहित्यिक समारोहों या कवि-गोष्ठियों में भी नही जाते थे, या यों कहें, बहुत कम जाते थे। केवल नागरी प्रचारिणी सभा संस्मरण पर्व : ६३
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