पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३६८

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- इसका अपवाद थी। वहां तो वे प्राय' चले जाते थे। एक बार एक मासिक गोष्ठी थी। वहां मेरे बहुत कहने-सुनने से प्रसादजी चले तो अवश्य गये, किन्तु कविता उन्होने बहुत आग्रह करने पर भी नही पढी। घर लौटने पर मैंने इस बारे मे कुछ मीठा उलाहना दिया तो वे हंसकर बोले-"देखिये, आप चार मित्रो और समझने- वालो के आगे कविता पढने मे मुझे जो आनन्द मिलता है, वह आनन्द उस आत्म- प्रदर्शन के मेले मे कहां मिल सकता था? आपने देखा नही, कवि लोग अपनी प्रशसा सुनने के लिए श्रोताओ की ओर कैसी ललचाई नजर से ताकते थे, जैसे प्रशसा की भीख मांग रहे हो। इसे कवि और कविता दोनो का अपमान मानता हैं। जैसे सच्ची कविता एक झरने की तरह हृदय से स्वत फूट पडती है, वैसे ही सच्ची प्रशसा भी समझदार के मुंह से आप ही-आप निकल पडती है।" मैं प्रसादजी के ही बंगले मे (यह स्थान प्रसादजी के घर के सामने ही था) रहता था। मेरा-उनका माथ दिन-रात छ -सात घटे रहता था। प्रसादजी जो कुछ लिखते थे, वह पहले मुझे ही सुनाते थे और तभी उन्हे सतोष होता था। मैं भी जो कुछ लिखता था, वह उनको सुना देता था और वे सर्वदा मुझे उत्साहित करते थे। मुझे आज भी याद है कि मेरा किया हुआ रवि बाबू के 'चोखेर बाली' उपन्यास का हिन्दी अनुवाद 'आँख की किरकिरी' के नाम से जब 'हिन्दी ग्रथ रत्नाकर' से प्रकाशित हुआ था और उसका पैकेट मेरे पास आया था, तब क्तिने चाव से प्रसादजी ने स्वय उसे खोला था और एक मच्चे मित्र की तरह आनन्द-पुलकित होकर मुझे सफलता के लिए बधाई दी थी। इसके बाद उन्होने एक ही दिन मे उसे समास कर मेरी प्रशसा मे जो शब्द कहे ये, वे आज भी मेरे हृदय मे अकित है। प्रसादजी एक सच्चे मित्र और हितैषी ये। प्रमादजी सहिष्णु भी बडे थे। यहाँ एक उदाहरण देता हूँ - सराय गोवर्धन (इसी मुहल्ले मे प्रसादजी रहते थे) मैं प्रसादजी के घर से थोड़ी ही दूर पर और एक सज्जन रहते थे। वह प्रसादजी से स्पर्धा का भाव रखते थे। यह बात प्रसादजी से छिपी नही थी। वह मज्जन अपने को प्रसादजी से बडा रईस प्रसादजी से बड़ा बिद्वान् और प्रसादजी से बडा कवि समझते ये-समझते ही नही थे, इसका डिडिमनाद भी मौक-बे-मौके क्यिा करते थे। वह सज्जन मेरी और प्रसादजी की अन्तरगता जानते थे, इसीलिए वह जो बात प्रसादजी के कानो तक पहुँचाना चाहते थे, वह मुझ से कह देते थे। किन्तु किसी की बात किसी से कहना मेरे स्वभाव के विरुद्ध था। इसके सिवा मैं उनकी भावना को जानता था, इसीलिए सुन अवश्य लेता था, पर प्रसादजी से कभी नही कहता था। किन्तु एक दिन उन सज्जन ने अपनी कविता की प्रशसा तो की ही साथ ही यह भी कह दिया कि प्रमादजी को वह चलेज करते है कि ऐसी अनुप्रामपूर्ण भाषा मे भावभरी कविता करके दिखावे । मुझे उनकी यह अहम्मन्यता ६४: प्रसाद वाङ्मय