पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३६९

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-- 2 .. बहुत बुरी लगी और मैंने कह ही दिया कि प्रसादजी अगर ऐसी कविता लिखने लगे तो मैं कहूँगा-वह अपनी प्रतिभा का दुरुपयोग कर रहे हैं ! इतना कहकर मैं चला आया । आते ही मैंने प्रसादजी को बुलवाया और उगरो मय हाल कह दिया । सुनकर प्रसादजी ने ठहाका मारकर बात इमी में उड़ा दी : बोले .. आप इतने उत्तेजित क्यों हैं ? उन भाई का स्वभाव ही ऐसा है ! अहा: मेरे साथ स्पर्धा करके ही अगर वह कुछ उन्नति कर लें तो क्या बुरा है ? ३री या हानि है ? मैं तो उनकी सहिष्णुता देखकर दंग रह गया। इतना है , " को जब मेरे साथ वह दूकान जाने लगे, तब घूमबर उन्हीं मज्जा के जेनले, उन्हें आवाज देकर बाहर बुलाया। स्वयं बोले भाई तुम तो हर गे ढ़ गये हो कविता के क्षेत्र में ! मैं तो तुम्हारे पीछे भी नही नल स 'रह सज्जन दोनों प्रसादजी का मह ताकने लगे। प्रसादतीने सः मुद्रा काम .. वय महे, कि यह समझना कठिन हो गया कि वे व्यंग कर रहे . सो उद्गार ! वह सज्जन तो यह समझकर कि प्रसादजी पवार नगर की है, फूलकर कुप्पा हो गये और अपना बड़प्पन जनाते हुए बोले . नही-ही, तुत्र भी अब अच्छी कविता कर लेते हो। साधना करते रहो ! मैं तो किरात इसी मशगूल रहता हूँ। कहना न होगा । हँसी के मारे मेरा पेट फूल रहा था । प्रसादजी जब प्रकाश्य रूप से साहित्य के क्षेत्र आहे, उसने बहुत रहले से वे लिख रहे थे। किन्तु किसी पत्र-पत्रिका में अपनी समान कि असंभव ही-सा था। मैंने बहुत कह-सुनकर उनकी कुछ कहानियां . कविताएं कुछ पत्रों में भेज दी थीं। पर नाम के पोछे दीवाने सम्पादकों ने, पहले अन्यात प्रमादजी की रचनाओं की ओर उतना अनुराग नहीं दिलाया। सन मी प्रेर: रो प्रसादजी ने अपने भांजे श्री अम्बिका प्रसाद गुप्त के नाम में इन्द्र' नाम की एक पत्रिका प्रकाशित की। इन्दु के सम्पादन का भार मुश प: ही छोड़ दिया था। इन्दु में प्रसादजी की कई रचनाएँ निकली और हिन्दी-संसार प्रसाद की प्रतिभा का पुजारी बनने लगा। 'इन्दु' ने अच्छी ख्याति पायी थी। परन्तु प्रबन्ध की नवी से उसमें इतना घाटा होने लगा कि अन्त में वह बन्द ही हो गयी। प्रसादजी के परममित्र, कलाप्रेमी राय कृष्णदास जी ने इस बाद प्रसादजी की रचनाएँ प्रकाशित करना शुरू किया। इसके बाद तो प्रमादजी एक के बाद एक उत्तम नाटक, कहानियाँ, उपन्यास और कविताएँ लिख र हिन्दी के भण्डार को भरने लगे। उनके नाटक हिन्दी की शोभा हैं। उनके उपन्यास अद्वितीय हैं। उनकी कहानियाँ हीरे के टुकड़ों की तरह प्रतिभा की ज्योति से परिपूर्ण हैं। उनकी संस्मरण पर्व : ६५