धन्य तेरा स्मरण-वंदन -ज्ञानचंद जैन काशी जाकर बाबा विश्वनाथ के मन्दिर का दर्शन करने जानेवाले भक्तजनों के मन मे उत्माह का जो भाव रहता है, वही भाव उस समय मेरे हृदय मे था, जब मै भाई विनोदशंकर व्यास के साथ प्रसादजी का पहली बार दर्शन करने के लिए गोवर्द्धन सराय गया। पुराने और जराजीर्ण मकानों के बीच टेढी-मेढी तंग गलियों को पार कर जब हम अपेक्षाकृत म्खुली जगह मे पहुंचे और व्यासजी ने जब सामने स्वच्छ-धवल मकानो की एक श्रेणी की ओर संकेत करके कहा --यही प्रसादजी का मकान है; तब में भी कौतूहल मे भर उठा । मकान मे प्रवेश कर हम बैठक मे पहुंचे। प्रसादजी बैठक मे न थे वे भीतर दालान मे कारखाने की तरफ थे। मैं बैठक मे गद्दी से कुछ हटकर तस्त पर बैठ गया। विनोद शकर जी भीतर दालान में चले गये। मैंने बैठक मे चारो ओर कौतूहल भरी खबर दौडाई। तख्त पर गद्दी के ऊपर लगा हुआ धर्मकांटा और ऊपर ताकों पर रखी हुई बहियाँ प्रमादजी के वैश्यकुलीन होने की सूचना दे रही थी। दीवारो पर प्रसादजी के पूर्वजो के कुछ बड़े तैल चित्र लगे थे। प्रसादजी को चित्रो मे मै पहले देख चुका था इसलिए विनोदशंकर व्यासजी के साथ जब वे बैठक मे प्रविष्ट हुए तो वह जाकृति जानी-पहचानी-सी प्रतीत हुई। गौर वर्ण. उन्नत ललाट, चरित्र की दृढता प्रकट करनेवाली पुष्ट ठोढी, कला- प्रियता का परिचय देनेवाली पतली नाक, कमरत से हृष्ट-पुष्ट शरीर-प्रसादजी का छविचित्र आज भी मेरे मानम-पट पर अच्छी तरह अकित है । कुछ दिन पहले मै प्रेमचन्द से मिला था। मैं मन ही मन प्रेमचन्द और प्रसाद की तुलना करने लगा। प्रेमचन्द के व्यक्तित्व मे कही असाधारणता नही थी। वेशभूषा, बातचीत, आकृति-प्रकृति सब मे प्रेमचन्द एक साधारण व्यक्ति प्रतीत हुए थे-जैसे आपको जीवन में प्रतिदिन मिलते रहते है। हां, उनकी सरल आँखो में अवश्य एक चमक थी, जो साधारणतया देखने को नही मिलती। बातचीत करते समय जब वे आंखें आपकी ओर देखती थी तो ऐसा भास होता था कि वे आपके ७४: प्रसाद वाङ्मय
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