पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३७९

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अन्तरतम में प्रवेश कर देख रही हैं। प्रसादजी के मुखमंडल पर उनके कौटुम्बिक ऐश्वर्य की छाया स्पष्ट थी। 'उमका रहन-सहन बहुत सादा था घर पर वे साधारणतया गाढ़े की मिर्जई और धोती पहनते थे। फिर भी उनकी मुद्रा से उनका अभिजात वर्ग छिपता न था। जीवन के संघर्ष ने उनके मुखमंडल पर अनेक कठोर रेखाएँ खीच दी थी। फिर भी वे जब सरस साहित्य-वार्ता अथवा कविता-पाठ मे मग्न हो जाते तो उनके मुखमंडल पर एक सहज स्निग्धता का भाव छा जाता, जीवन की सारी कठोर रेखाएं जैसे मोम की तरह गलकर बह जाती। मैं जिस समय प्रसादजी से मिला, मैंने सरस्वती के मन्दिर में पैर रखा ही था। फिर भी प्रसादजी बिल्कुल बराबरी के भाव से मिले मुझमे, अपने व्यवहार मे कही भी बड़े या छोटेपन का भाव मेरे मन मे उदय नही होने दिया। प्रेमचन्द जी के व्यवहार मे भी मैंने यही विशेषता पाई थी। अब यह स्वभाव दुर्लभ होता जा जिसके अनुसार कलाकारों के स्वभाव मे सहज रूप मे अहम्मन्यता की भावना रहती है। बहुत कम कलाकार गमे मृक्त होते हे । परन्तु प्रगाद जी मे आत्मप्रदर्शन तथा आत्मश्लाका से दूर रहकर निष्काम भाव से काम गरने का अद्भुत अभ्यास था। कुछ मित्रों ने लिखा है –प्रसादजी ने अपने आचार-विचार और स्वभाव में 'कंजरवेटिव' थे। यह एक हद तक सही है ! मेरे मन पर भी उनके चरित्र की ऐसी ही छाप पडी है । परन्तु इसका यह अर्थ न लिया जाय कि प्रसादजी प्रगति- विरोधी थे। प्रसादजी प्रगति के प्रबल पक्षपाती थे। यह मही है कि वे क्रान्ति की अपेक्षा सुधार के समर्थक थे। उन्होने अपना एक जीवन-दृष्टिकोण बना लिया था, आज की समस्याओ का निराकरण करते थे। फिर भी प्रसादजी की जीवन-प्टि कभी स्थिर (अगतिशील) नहीं रही। उनकी रचनाओं का क्रमिक अध्ययन करने से पता चलता है कि प्रसादजी की जीवन दृष्टि उत्तरोत्तर परिवत्तित और सम्वधित होती रही। उनका व्यक्तित्व कभी विरामशील नही रहा-वह उत्तरोत्तर विकसित होता रहा । जीवन की समस्याओं से वे कभी भागे नही; उनका डटकर सामना करना ही उन्होने जीवन ना इप्ट माना। अपने व्यक्तिगत जीवन में भी प्रमादजी को अनेक संघर्षों का सामना करना पड़ा और इन संघर्षों का भी उमी भावना से सामना किया, जिमका प्रतिपादन उन्होंने अपनी रचनाओं में किया है। इसलिए जो आलोचक यह नहते है कि प्रमादजी की रचनाएं जीवन से दूर हैं, मैं कहूँगा, वे बहुत छिछली दृष्टि रखते है। प्रसादजी की रचनाओं का जीवन से गहरा, अति सूक्ष्म सम्बन्ध है । प्रसादजी के दर्शनों का मुझे सिर्फ ५-६ बार सौभाग्य मिला। परन्तु उनके संस्मरण पर्व : ७५