पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८०

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चरित्र की जो छाप मेरे मन पर पडी, उन्होंने जो संस्कार मुझे दिये, उन्हे मे आज भी अपने जीवन की बहुमूल्य थाती मानता हूँ। प्रमादजी के मुख गे मुझे 'आँसू' और 'कामायनी' के कुछ मर्ग सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। प्रमादजी मदद - कवि-सम्मेलनो और सभा-सोसाइटियो से दूर रहे। इग्मे एक हद तक उनकी आत्म-प्रदर्शन नथा आत्मश्लाका से दूर रहने की वृत्ति काम करती थी। इसके अलावा प्रमादजी की कविताएँ सभा-सम्मेलनो की अपेक्षा एकान मे, दो-चार मित्रो की गोष्ठी मे 'रम लेने की वरतु अधिक है। उनकी कविताओ मे एक सहज गेमानी झलक रहती है, जो जीवन से दूर प्रतीत होने पर भी कही पर जीन को स्पश करती है। प्रसाद के अन्तिम अधूरे उपन्यास 'इरावती' की पाण्डलिपि भी मैंने उनके सामने बैठार पढी थी। प्रसाद जी ने 'कामायनी' की रचना के बाद ही इस उपन्यास को लिखना शुरू प्रिया था। उन्होने लगभग एक दर्जन ऐतिहासिक उग यामो के प्लाट पनाये ये ओर ऐतिहासिक नाको की भांति वे एतिहासिक उपन्यामा की मो माला गूयन वाले हैं। नाटको के क्षेत्र में 'ध्रुवस्वामिनी' के रूप म उन्होन जा नया प्रयोग किया था, उसे वे आगे बढाने का विचार रखते थे। इन्द्र' पर उन्होने लम्बी खोज की थी ओर इरावती उपन्यास के बाद ही वे इन्द्र' नाटा लिखा की नैयारी कर रहे थे। परन्तु असामयिक बीमारी ने उनकी सारी साहित्यिक योजनायो पर विराम चिन्ह लगा दिया। बीमारी की अवस्था मे प्रसादजी के दो बार दर्शन का अवमर मिला । पहली बार जब मिला तब टी० बी० की शुरूआत थी और उस समय वे जरा भी हतोत्साह नही थे, उनका विश्गस था कि कुछ ही दिनो मे अन्छे हो जाएंगे। परन्तु ६ महीने बाद जब मै दूसरी बार मिला.तो उनको पहचाना मुश्किल था। वह हृष्ट-पुष्ट, कातिमान शरीर कृश होकर एकदम काला पड गया था। गरीर पर एक पतली चमडी रह गई थी। शरशैया पर पडे भीष्म पितामह की तरह, बिस्तर पर पडा हुआ उस साहित्यिक तपस्वी का हड्डियो का ढाचा देखकर रोमाच हो आता था । प्रेमचन्दजी को भी बीमारी की अन्तिम अवस्था मे देखने का मुझे अवसर मिला है। जलोदर से उनका पेट फला हआ था, उन्हे बडा कष्ट था। जैनेन्द्रजी भी साथ थे। एक हसरत भरी नजर से वे हमारी ओर देख रहे थे, फिर उन्होने जाँखे बन्द कर ली। उस मूक दृष्टि में जीवन की अधूरी लालसाएं जिस प्रकार कातर होकर झांक रही थी, उन्हे वाणी अभिव्यक्त करने में असमर्थ हे । प्रसादजीगी कातर इष्टि मे मुझे यही भाव झांकते मिले, जो प्रेमचन्दजी की बीमारी की अन्तिम अवस्था में देखे थे और जिनकी छाप आज तक मेरे मन पर अंकित है। फिर भी, प्रसादजी के नेत्रो मे असहायावस्था का भाव होते हुए भी दीनता का कोई भाव न था। उन्होने जैसे अपने को नियति के हाथों मे समर्पित ७६ प्रसाद वाङ्मय