पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८१

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कर दिया था और 'प्रभु जो होनी होइ सो होई' का भाव धारण करके उन्होंने अपने को प्रस्तुत कर लिया था। प्रसादजी ने अपने जीवन में कभी हार न मानी थी, और अन्त समय मे भी वे एक वीर सैनिक की भांति जीवन से युद्ध करते हुए मव पीड़ाएं सह रहे थे। उन्हें किमी से कोई शिकायत न थी, न शिकवा न था। 'कामायनी' मे मभरमता की जिस उच्च भावभूमि का प्रतिपादन किया गया है. उसे वे अपने जीवन मे चरितार्थ कर चुके थे । मेरा हृदय उनके सामने श्रद्धा से नतमस्तक हो गया । आज जब उस साहित्यिक तपस्वी का पुण्य रमरण करता हूं, तो मुझे भीतर से एक बल मिलता है। प्रसाद की रचनाओ । सर्वत्र शक्ति का प्रवाह है। उनके हित्य में एक पौरुष है. जो उन्यत्र दुर्लभ है। हमारा भाग्य है कि हमे ऐसा महान साहित्य-गहारथी मिला, जिससे हमारी भाषा धन्य हुई ! संस्मरण पव । ७७