पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८८

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- नारियल बाजार में बहुत पुरानी थी, वह अब भी है-'सुंधनी साहु की दुकान' के नाम से वह मशहूर है। दुकान छोटी है। उसी के मामने दूसरी पटरी पर उन्होंने बैठने तथा मित्रों के स्वागत के लिए एक अलग दूकान किराये पर ले रखी थी। मैं भी उनके साथ वही जाकर बैठ गया। थोड़ी देर के बाद लाला भगवानदीन तथा रामचन्द्र वर्मा भी वहीं आ गये। फिर और भी लोग आये । वहाँ दो ही बातें हो रही थी-हंसी-दिल्लगी और साथ-साथ पान का दौर । घण्टों साहित्यिक महारथियों का जमावा और कहकहेबाजी से सारा वातावरण जगमगा जाता था। वारीक से बारीक और साफ से साफ मज़ाक होता था, और फिर धीरे-धीरे लोग चले जाते थे। प्रसादजी दूक न से रकम सहेजते और घर जाते थे। मज़ाक में प्रसादजी बहुत हाजिर-जवान थे। कभी ऐमा उत्तर देते थे कि लोग मुंह-की खा जाते थे। यह क्रम प्राय: नित्य का होता था। केवल अंतिम दो- तीन साल-जब वे बीमार रहने लगे और अनेक साथी मर-मरा गये--यह वैठकी समाप्त हो गयी। (जनवरी १९२७ के अतिम सप्ताह तक चली-सं०) जवानी में प्रसादजी बहुत हष्ट-पृष्ट थे। कुश्ती का भी शौक था। शुरू जवानी में वे भांग का सेवन भी किया करते थे; बाद मे छोड दिया था। मदिरा का सेवन, जब से मैं उन्हें जानता हूँ, कभी नहीं किया। सदा शाकाहारी रहे। पहले भी जहाँ तक मुझे ज्ञात है, मांस या मदिरा का गेवन उन्होने कभी नहीं किया। खिलाने के बहुत शौकीन थे। स्वयं बढिया भोजन बनाना जानते थे और अपनी देख-रेख में बहुत अच्छी चीजें बनवाते थे। उन दिनों काशी मे माधारणत जो माहित्यकार आते थे, उन्ही के यहाँ ठहरते थे और उनका आतिथ्य विख्यात था। मृत्यु के सात-आठ माल पहले मे उन्होंने मवेरे टहलना आरम्भ दिया था। हम लोगों के मकान के निकट बेनियाबाग है। उमी के ननदी : उन दिनो मुंशी प्रेमचन्द ने भी मकान किराये पर ले रखा था। मधेरे वे, प्रेमचन्द, महावीरप्रसाद गहमरी (जो जामसी उपन्याम लेखक गोपाल राय गमरी के छोटे भाई थे और 'आज' के संपादकीय विभाग में काम करते थे) तथा इन पंक्तियो के लेखक नित्य टहलने वहाँ जाते थे। लगभग एक घण्टा हम लोग यहाँ टहलते थे। वहां से वे मेरे मकान होते हुए डॉक्टर एच० मिह के यहाँ दस-पाँच मिनट बैठ जाते थे। एक होमियोपैथिक डॉक्टर है और बहुधा इन्ही की चिकित्सा वे किया करते थे। अन्तिम अवस्था में भी इन्ही की चिकित्गा होती रही। वहाँ भी हमी-मज़ाक होता था, तब वे घर लौटते थे। बेनिया बाग में टहलते समय बहुतेरे राजनीतिक, साहित्यिक, सामाजिक विवाद होते थे और माथ-माथ हास्य-विनोद भी होता रहता था। कविता और कहानी तो वे लिखा ही करते थे, परन्तु कवि-मम्मेलनो में जाते न थे। सैकड़ों बार लोगों ने - 1 ८४: प्रसाद वाङमय