पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३८९

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था। उस समय तक आग्रह किया, पर वे कभी न गये। घर पर वे मित्रों को अवश्य सुनाया करते थे- उसमे उन्हें कोई झिझक न थी। 'आँसू' के छन्द बड़ी मस्ती से सुनाया करते थे। और भी रचनाओं को वे एक अपने निजी लहजे से सुनाते थे रात को वे प्रायः लिखा करते थे और फिर उसे दूसरी कॉपी मे उतार लेते थे । जब प्रेस मे भेजना होता था, तब किसी से कॉपी करा लिया करते थे । समय-समय पर, सारी 'कामायनी' ज्यो-ज्यो उन्होने लिखी थी, मुझे सुनायी थी। जब नागरी-प्रचारणी मभा का हिन्दी का बडा शब्दकोश पूरा हो गया, तब एक साहित्यिक आयोजन हुआ था जो 'कोशोत्सव स्मारक समारोह' के नाम से विख्यात है। उस अवसर पर एक विराट कवि-सम्मेलन भी हुआ था। उसमे बहुत आग्रह करने पर उन्होने 'कामायनी' का लज्जा वाला मर्ग सुना कामायनी अधिकाश प्रकाश में न आई थी, केवल उसका कुछ अंश 'माधुरी' में छपा था। जब वे कविता पढकर मच पर मे उठे लोगो ने प्रशमा के पुल बाँध दिये- भूरि-भूरि सराहना लोगो ने की। उसके गर मेने डी० ए० बी० कॉलेज मे कवि- सम्मेलन किया और जबरदस्ती उन्हे पकड़ ले गया। वहाँ पर उन्होने 'ऑसू' के कुछ छन्द तथा 'ने नल मुझे भुलावा देकर' वाली कविता सुनाई थी। यही दो अवसर मुझे याद है, जब जनता की भीडभाड मे उन्होन कविता पढी यी। सन् १९३७ ई० मे लखनऊ मे एक प्रदर्शनी हई थी। उस समय 'हिन्दुस्तानी एकाडमी' का अधिवेशन भी हुआ था और एक कवि-मम्मेलन का आयोजन भी हुआ था। हम लोगो के बहुत आग्रह पर प्रमादजी लखनऊ आये । वे ठाकुर त्रिभुवन- नाथ सिंह 'मरोज', बिसवावालो के मकान पर, मोलवीगज में ठहरे थे। कवि सम्मेलन के सयोजक बाबू दुलारेलाल थे। उन्होने एक औपचारिक निमत्रण उनके पास भिजवा दिया। यद्यपि वे यो भी कविता पढने वहाँ न जाते । फलतः वे कवि सम्मेलन मे नही गये। कान्यकुब्ज कालेज के अधिकारी बहुत आग्रह से उन्हे ले गये और भी अनेक महान् साहित्यकार वहां बुलाये गये थे। वहां उन्होने कुछ रचनाए पढी। यह उनका अतिम कविता-पाठ था। उसी के बाद वे जब काशी लौटे, उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और डाक्टरो ने बताया कि उन्हें राजयक्ष्मा हो गया है। जैसा उनकी रचनाओं से ध्वनित होता है, प्रमादजी पक्के नियतिवादी थे। वे जान गये थे कि 'मैं अब अच्छा न हो सकूँगा' जाधवपुर सेनेटोरियम मे, उनसे बहुत आग्रह करके स्थान सुरक्षित कराया गया । जाने की तिथि तय हो गई, सामान बंध गया। मगर ठीक समय पर उन्होने जाने से कार कर दिया। लोग लाख कहते-मनाते रह गये, वे टस-से-मस न हुए। तब हम लोगो ने कहा-अच्छा, दूर नही तो नजदीक ही कही जाइये ! उन दिनो निकट ही सारनाथ मे एक राजयक्ष्मा संस्मरण पर्व : ८५