पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९०

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गृह था। वहां प्रबन्ध किया गया। सब तैयारी हुई। मोटर दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई, सामान लद गया। उन्होंने भी कपड़े पहने । पर चारपाई से उठते- उठते न जाने क्या उनके मन में आया, वे नही गये । सब लोग चले गये । एकांत पाकर मैंने उनसे पूछा-"यह क्या बात है ? यह आप अपने ऊपर ही नहीं, हम लोगों पर भी अत्याचार कर रहे है !" उन्होंने उत्तर दिया--"गौड़जी, मैं अच्छा नही हूँगा ! आप लोग व्यर्थ प्रयत्न कर रहे है ।" फिर उन्होने कुछ निजी बातें कही। पता नही मुझे आश्वासन देने के लिए, अथवा उनमे कुछ तथ्य था। मैं चुप हो गया। कुछ लोगों का ख्याल था कि आर्थिक कठिनाई के कारण वे कही नही जाना चाहते । मगर ऐसा नही था। एक बार महाराजकुमार रघुवीर सिंह ने, जो उनके मित्रों मे थे, एक पत्र उन्हे लिखा था कि पूरी व्यवस्था मै कर दूंगा। मगर प्रसादजी ने उन्हे धन्यवाद का पत्र लिखवाकर भेज दिया कि इमकी आवश्यकता नही है।' वे नीचे अपने कमरे मे पड़े हुए थे। मैं प्रायः नित्य ही उन दिनो वहाँ जाता था। सबेरे का समय था। नवीनजी आये थे। उन्होने देखा-सुन्दरता की तस्वीर, हृष्ट-पुष्ट शरीर मूखकर ठठरी हो गया था। चेहरा फीका सफेद हो गया था। उनके कमरे से बाहर निकलकर नवीनजी, जो बहुत ही भावुक आदमी है, फफककर रोने लगे। अंतिम दिनो मे यह प्रसादजी का हाल हो गया था ! मृत्यु के दो दिन पहले मैं सबेरे उनके कमरे मे ज्गो ही गया, वे मुस्करा दिये । जिनकी दवा हो रही थी, वहां मौजूद थे । तकिये के सहारे प्रसादजी बैटे थे। रात भर नीद नही आयी थी। सांस लेने मे कष्ट हो रहा था। बैठकर सांस लेने में कुछ आराम था। बहुत धीमे स्वर मे, उमी मुस्कान के माथ बोले- "क्या हाल है !" मेरे मुंह से बोली न निकली। वहुत परिश्रम से मैं अपने आंसू रोक सका। बाहर चला आया। वह मैने उनकी अन्तिम मुस्कान देखी। दूमरे दिन रात को तीन-चार बजे वही डाक्टर साहब मेरे घर आये । उन्होंने पुकारा । दरवाजा खोलते ही उन्होंने कहा-"प्रसादजी नही रहे !" प्रसाद के साहित्य का मूल्यांकन रोज होता रहेगा, परन्तु उनके जीवन का, उनके व्यक्तित्व का मूल्याकन करनेवाले अब तीन-चार ही इने-गिने लोग रह गये है, जिनके हृदय मे उनके साथ बिताए सुख-दु.ग्व की कहानी, उनके रममय जीवन की तस्वीरें, उनकी उदारता, उनकी विशालता, उनकी क्षमाशीलता, उनकी चतुरता, उनकी मनुष्यो को परखने की क्षमता उनके साथ ही चली जाएंगी। उनके जीवन मे भी अनेक लोगों ने उन्हें गलत समझा। पर अब तो कहानी रह गई ! डाक्टर, . ८६ : प्रसाद वाङ्मय