स्मृति के शिलालेख -गोबिन्द बल्लभ पंत (नाटककार) प्रसादजी ने हिन्दी के रंगमंच को एक-प्रवेशी नाटकों का स्थापत्य नहीं दिया, यह सच है, पर किसी रंगमंच से सम्बद्ध न होते हुए भी उन्होंने अपनी कृतियों में जो नाटक के तत्व उभारे हैं, वे सर्वथा सराहनीय और उनके कल्पना-कौशल के साक्षी हैं ! यह सन् १९१७ ई० की बात है, जब मैं बनारस के सेन्ट्रल हिन्दू कालिज का विद्यार्थी था और कमच्छा के हॉस्टल में रहता था। साहित्य की अभिरुचि पहाड़ पर ही पनप गई थी और अभिव्यक्ति का पहला माध्यम 'छन्द' ही हाथ लग गया था । प्रसादजी की सान्निध्य में आने का यही मुख्य कारण बना। कमच्छा से गोवर्धन सराय मुहल्ला अधिक दूर नही था, जहां प्रसादजी रहते थे। मेरे हॉस्टल के सहवासी मित्र स्वर्गीय कुसुम को भी साहित्य से प्रेम था। उन्हें प्रसादजी का परिचय प्राप्त था। जब उन्होंने प्रसादजी के कवित्व के साथ-साथ उनके सौजन्य-शील की भी प्रशंसा की तो एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी कविताओं को लेकर उनके यहां जा पहुंचे। समय की धूसर पड़ी हुई दूरी में आज भी उनकी वह उदार और सहज हास्य से प्रभावित मुद्रा चमक रही है। हिम-उज्ज्यल ढीली बांह का कुरता और धोती पहने वे कई मित्रों से घिरे एक तख्त पर बैठे थे। मेरा परिचय पाकर बड़ा बन्धुत्व उनके भीतर प्रकट हो उठा। बड़े संकोच के साथ मैंने अपनी कविताएँ उनकी तरफ बढ़ाकर उनके संशोधन मांगे। मेरी साधारण कृतियों के लिए उन्होंने मेरा जो उत्साह बढ़ाया, उसने मेरी साहित्यिक प्रगति के वास्ते मार्ग ही नहीं प्रकाश भी दिया। जब नक बनारस में रहा, मैं बराबर उनका सत्संग प्राप्त करता रहा। बयालीस वर्षों की दूरी में अदृश्य हुए उस दृश्य को जब याद करता हूँ तो एक दुमंजिले मकान के निचले भाग से कुछ मजदूर, हाथों में बड़े-बड़े लट्ठ लिये, खिड़कियों से होकर मेरी आँखों के आगे आते हैं। उनकी नाक, मुंह और अंशतः आंखें कपड़े से बंधी हुई-वे तमाखू की पत्तियों को कूटते थे। तमाखू की धूल उनके अंगों और कपड़ों पर जमी हुई, उनका विचित्र रूप दिखातो थी। वहां से धूमकर मैं प्रसादजी की बाहरी बैठक के सामने आता था, जो नीचे की मंजिल में अवस्थित संस्मरण पर्व : ८७
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