पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९२

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पी। बड़ी सरल-साज-सज्जा थी वहाँ। छोटे-बड़े हर स्थिति के व्यक्तियो मे बैठे, प्रत्येक से बड़े ममत्व और समत्व से उन्हे बाते करते हुए मैं पाता था। किसी के साथ साहित्य-चर्चा करते थे, किसी से गृह-प्रबन्ध की बातचीत । कोई व्यवसाय के लिए आदेश मांगता, कोई उपदेश चाहता था। कोई अपनी कठिनाई का हल लेने आता उनके पास। कभी धूप में गमछा पहने हुए, तख्त पर बैठकर तेल मालिश कराते हुए पाता था मै उन्हे। सौजन्य और सहृदयता की प्रत्यक्ष मूर्ति थे प्रसादजी कभी उनकी बातो या व्यवहार में, मैंने उनमे बनावट या ओछापन नही पाया। अपनी बडाई या दूसरे की निन्दा मे रस लेते हुए भी नही सुना। नौकर- चाकरो के साथ भी बडी प्रीति और प्रतीति के साथ बर्ताव करते हुए देखा। कभी किसी पर असन्तुष्ट या असतुलित नहीं पाया। कालिज की नाटक-ममिति मे मैं भूमिकाएं लिया करता था। कभी-कभी उसके लिए थोड़ा-बहुत कुछ लिखता भी था। प्रसादजी ने मेरी नाट्य-चेतना को विकसित करने के लिए मुझे नाटक लिखने के लिए उत्साहित किया। उन्होने मुझ से अजातशत्रु पर नाटक लिखने के लिए कहा ही नहीं, बल्कि उसका तमाम कथानक बनाकर भी मुझे दिया था। तब उस गुरु भार के लिए अपने को मैंने सर्वथा अक्षम पाया। मैंने वह कथानक उन्हे लौटा दिया; उस पर उन्होने फिर स्वय ही लिखा। प्रसादजी के यहां हिन्दी के अनेक साहित्य-सेवियो के साथ मेरा परिचय हुआ, जिनमे कुछ के नाम याद आते है-कलाविद् राय कृष्णदासजी, वेदान्त-शास्त्री श्री रामगोविन्द त्रिवेदी, हिन्दी के पुराने कथाकार श्री विश्वम्भरनाथ 'जिज्जा', नये कथा-शिल्पी श्री विनोदशकर व्यास तथा 'इन्दु' के सम्पादक-प्रकाशक श्री अम्बिका- प्रसाद गुप्त से भी मेरा परिचय वही हुआ। वे प्रमादजी को मामा कहते थे । प्रसादजी की रचनाएँ 'इन्दु' मे छपती थी और उनकी प्रारम्भिक कई पुस्तके भी उन्होने प्रकाशित की थी। प्रसादजी की एक घोडे की गाडी याद आती है। संध्या को नियमित समय पर उनका कोचवान गाडी को वहाँ ले आता था। प्रथा के अनुसार उसमे लोटा-डोर रखा जाता था, पान-तमाखू का डिब्बा भी। प्रसादजी के यहां का पान विशेष स्वादु होता था। बनारस का पान स्वत ही प्रसिद्ध है, फिर मुंघनी साडु के यहाँ का । सारा वायुमण्डल वहाँ सुगन्ध से व्याप्त मिलता था - सुगन्ध से सश्लिष्ट । और एक नाम याद आता है, वह उनकी सेविका थी, उसका नाम था सोना, बहुधा वही पान बनाकर लाती थी। प्रसादजी की गाडी पर उनके साथ घूमने को जाने का सुअवमर मुझे भी मिला था। कई बार सारनाथ तक भी गया था और भारत के इतिहास का वह स्वर्ण-पृष्ठ मेरे मन मे गड गया। तब वह सारा मृगदाव बडी दयनीय दशा मे था। एक छोटी- . ८८: प्रसाद वाङ्मय