पुरुषोत्तम प्रसाद -बलदेव प्रसाद मिश्र 'प्रसाद' जी के कुछ संपर्क में आने का सौभाग्य मुझे मिला था। उनका साहित्यिक रूप छोड़ दिया जाय, तो वे शुद्ध मानव के रूप में कैसे थे—यही आभास मुझे देना है। आभास इसलिए कि विधाता की निर्दयता के कारण उनसे संपर्क कुछ ही वर्षों रह सका, फिर उनका स्पर्श न पा सका। उनका परिचय पाने में उनकी स्वाभाविक गंभीरता और आर्यत्व--अपने गुणो को छिपाये रहने की प्रवृत्ति, आत्म- प्रचार से विमुखता तथा परिमित भाषण से सदा बाधा पड़ती थी। उन्हें समझने के लिए उनके इन गुणों का व्यवधान पार करना होता था। कह सकता हूँ कि वे 'उत्तम काव्य' थे प्रायः अलंकार-विवजित । उसी दृष्टि से देखने पर, गहराई में जाने से उनकी उत्कृष्टता प्रकट होती थी। उनके सम्पर्क में मैं आया था, यह सौभाग्य मुझे मिला था। १८-१९ वर्ष पहले। उसके बाद, उनके स्वर्गवासी होने तक उनका स्नेह क्रमश बढ़ता गया। किसी कवि ने कहा है :- न भवति, भवति च न चिरं, भवति चिर चेत्फले विसंवदति । मन्यु सत्पुरुषाणां स्नेहेन नीचानाम् ॥ --अर्थात् सत्पुरुषों का क्रोध और नीचों का स्नेह समान होता है। पहले तो वह होता ही नही, हो ती स्थायी नही होता, स्थायी हो जाय तो फल उल्टा होता है। प्रसादजी वस्तुतः मत्पुरुष थे ! १८-१९ वर्ष बाद भी, अनायास ही यह बात कह सका हूँ, यही प्रमाण है ! उनके विषय की धारणा को इतने काल वाद एक रत्ती भी बदल नही पाया हूँ मैं। काशी की इन विभृतियों का सत्संग प्राप्त करने के उद्देश्य से हम पांच मित्रों मे "रत्नाकर रसिक मंडल' नामक गोष्ठी की स्थापना की थी-उसी समय, आजीवन सभा-सोसाइटियों तथा 'पद' से पलायन करने वाले आचार्य रामचन्द्र शुक्लजी ने केवल स्नेह के कारण उसका सभापतित्व स्वीकार किया ण। इस गोष्ठी की पक्षिक बैठकें हुआ करती थी। उसमें शुक्लजी, प्रसाद, प्रेमचन्द, केशवप्रसाद मिश्रजी, राय कृष्णदास तथा काशी के प्रायः सभी साहित्यिक पधारते थे । तुल्यं ९०: प्रसाद वाङ्मय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९४
दिखावट