सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

इन गोष्ठियों में कविता-पाठ, साहित्यिक वार्तालाप आदि हुआ करता था। हमलोग बालोचित चपलता से कभी इन दिग्गजों को किसी सामान्य प्रश्न तक पर विचार करने की झंझट में डालकर इनकी बातें सुना करते थे, कभी चपलता का दमन कर इन लोगों का स्वतः-प्रवृत्त वार्तालाप सुना करते थे। तात्पर्य यह कि हमलोग उस समय अनायास 'वृद्धोपसेवन' करते थे। उन गोष्ठियों में लोग मुँह बनाकर नहीं बैठते थे। प्रेमचन्दजी की उन्मुक्त हंसी, मिश्रजी का अर्घ-हास्य, प्रसादजी का स्मित उस स्थान को जैसे स्थापित, क्षालित, शुचि, आनन्दमय बनाये रहता था। इन लोगो में बीच-बीच में बहुत गम्भीर हंसी- दिल्लगी, चोटभरी उक्तियाँ हो जाया करती थी। एक बार प्रेमचन्दजी ने कहा था कि हिन्दी के लेखकों को भ्रमण की सुविधा नही मिलती; उनमें इसकी प्रवृत्ति भी कम है। इसका कुछ उपाय होना चाहिए। मै तो बहुत चाहता हूँ कि कभी अफरीदियों-काबुलियों के दर्शन कर आऊँ। प्रसादजी बोले-- इसके लिए इतने कष्ट की क्या आवश्यकता? हमारे बगल में, हड़हा के दर्शन कर लीजिए। (बात यह कि काशी में 'हड़हा' एक मुहल्ला है, प्रमादजी के घर के समीप ही । वहाँ बहुत पुराने समय से व्यवसाय के लिए आगत काबुली रहा करते हैं। काशी में उनका वही एक केन्द्र है। वहाँ उनके ही देश की एकाध वेश्या भी रहा करती हैं) यह सुनकर प्रेमचन्दजी का अट्टहास प्रारम्भ हो गया। शुक्लजी भी मुस्कराने लगे। . एक दूसरे अवसर पर, गोष्ठी हो रही थी। एक कोने मे स्टूल पर बिजली का पंखा चल रहा था। उसका तार जमीन पर पड़ा था। इसी बीच श्री शांतिप्रिय द्विवेदी पधारे, और उस तार मे फंसकर स्वयं गिरते-गिरते और पखे को गिराते- गिराते बचे। लोग गोष्ठी की बातें छोड़कर शांतिप्रिय जी की 'अभ्यर्थना' में दत्त- चित्त हुए । बहुत से साहित्यिक विनोद हुए, सभी लोगों ने उन्हें 'बनाया' । प्रसाद- जी ने झुककर मुझसे कहा-एक 'अल्प' टला । ( यानि शांतिप्रिय जी की एक विपत्ति दूर हुई जो बिजली से हो सकती थी ) । उक्त मण्डल के तत्वाधान मे ही प्रमादजी के 'चन्द्रगुप्त' का अभिनय हुआ था। उसमें काशी के संपूर्ण साहित्यिकों यथा शौकीन अभिनेताओं का योग था। नाटक बहुत सफल हुआ था। उनके रिसल के दिनों प्रसादजी प्रायः आ जाया करते थे- हमलोग खीच लाते थे। वे बहुत बहुमूल्य परामर्श दिया करते थे। प्राचीन संस्कृति का ज्ञान उनका गंभीर और विस्तृत था। काशी के सर्वसाधारण तक मे मस्ती और हास्य प्रतिपद पर लक्षित होता है। संस्मरण पर्व : ९१