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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९६

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फिर प्रसादजी का कहना ही क्या ! वे पूरे बनारसी थे-रुचि मे, रहन-सहन मे, स्वभाव मे। प्रसादजी ने ब्रज भाषा मे कविता की है-आरम्भ मे । पुरानी परम्परा का प्रभाव उस समय उन पर था, जिसे दूर कर वे नये क्षेत्र मे चले आये । पर उस भाषा मे न लिखने पर भी, उसका 'मोह' उनमे पूरी मात्रा म था । उमका अध्ययन उन्होने सम्यक् रूप मे किया था, न जाने कितने चुने हुए छन्द उन्हे याद थे। उन्हे कुछ छन्द बहुत ही पसन्द थे । उनमे से एक मै यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूं जिसे वे मुझसे बार-बार सुना करते थे-- जाय भरे दिल है चलिबौ सुनि प्यारी निमा सब रोवत खोई । हो कह्यो, रोवौ न, जैये घर, यह गेइबो तो सुनिहै सब कोई ।। मोई 'नेवाज' सदा सुधि-मालति माहम के के चली पग दोई । आधिक दूर लो जाय, चित, पुनि आय, गरै लपटाय के रोई ॥ वज के पुराने कवियो मे 'पजनेस" प्रसिद्ध है, जिनकी रचना अपनी कुछ उद्दण्डता और चमत्कार के लिए प्रसिद्ध है। इनकी कविताए स्फुट ही मिलती थी, यद्यपि बाद मे काशी के बाबू रामकृष्ण वर्मा ने "पजनेस प्रकाश" प्रकाशित किया, जिममे मौ-सवा सौ छन्द है। प्रसादजी की युवावस्था मे. काशी मे कंटारे जी नामक एक सज्जन - गोरे, स्थूल, सन जैमी मफेद लम्बी दाढी वाले । उन्हे अपनी दाढी पर मोह और अभिमान था। नित्य गगाजी मे स्नान करते समय वे दो-तीन घटे दाढी की सफाई मे खर्च करते थे। इन कटारेजीको पजनेस के सैकडो छन्द याद थे । ये बड़ी मुश्किल से एक छन्द सुनाते थे और उसे फिर न सुनाते थे। उन्हे डर था कि लोग याद कर लेगे। प्रसादजी ने इनका सत्कार-स्वागत शुरू किया। घर बुलाकर ठढई पिलाने लगे। उसी समय आग्रह करने पर कटारेजी कुछ छन्द एक बार ही सुनाते थे, पर बगल के कमरे में चार व्यक्ति बैठे रहते थे, जो एक छन्द का एक-एक चरण याद रखकर लिख लिया करते थे। इस उपाय से प्रसादजी ने कटारे जी की सम्पूर्ण पूँजी निकाल ली थी। बाद मे जब कटारेजी को सब छन्द सुनाये गये तो वे समझ गये और बहुत ही बिगड़े । प्रसादजी कही आते-जाते न थे-न गोष्ठियो मे, न कवि-सम्मेलनों मे। उनकी तबियत इनसे बचने के लिए "खराब" रहा करती थी। जनसमूह मे, कवि-सम्मेलन के ढंग पर उनकी कविता, उतने दिनो मे दो ही बार सुनी मैंने-एक तो नागरी ९२. प्रसाद वाङ्मय