पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९७

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प्रचारिणी सभा के 'कोशोत्सव' ( स्मारक उत्सव ) पर और एक बार भदैनी के तुलसी पुस्तकालय में। तुलसी पुस्तकालय मे संभवतः वार्षिक उत्सव था। वहाँ श्री मैथिलीशरण गुप्त जी ने भी कविता पढी थी। प्रमादजी ने मुक्त छन्द की एक रचना पढ़ी थी। उनके पढने में न नाटकीयता थी, न राग-स्वर से पढेना, न कही जोर देना। एक ढंग से, बहुत धीरे-धीरे उन्होने पढा था । मौज-मस्ती से, मन से वे दो-चार भादमियो मे ही सुनाते, यद्यपि ऐसे प्रसंग कम ही देखे। पसन्द उन्हे यह भी न था। पर मुझे अकेले उनसे प्रायः सम्पूर्ण 'कामायनी' सुनने का सौभाग्य मिला था। मैं उस समय कितना समझदार था, यह तो वे जानते ही होगे, पर मेरे आग्रह और मुझ पर अपने स्नेह की उपेक्षा वे न कर सके। प्रसादजी निरन्तर अध्ययन करते रहते थे। वे प्रतिदिन अध्ययन करते थे। ठीक ही कहा जाता है कि हिन्दी के कवियो मे अध्ययनशील वे ही थे। प्रसादजी सस्कृत का भी अध्ययन करते रहते थे। शतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय, ताड्य, धर्मशास्त्र आदि कितने ही विषयो की पुस्तके वे मुझसे मंगवाया करते थे। स्वर्गीय महा- महोपाध्याय पडित देवी प्रसाद शुक्ल कवि चक्रवर्ती से भी उन्होन संस्कृत का अध्ययन किया था। यह शुक्ल जी महाराज भी विकट जीव थे- भयंकर रसि। इनका परिचय फिर कभी। प्रसादजी आत्मप्रचार से इम मात्रा मे दूर रहे f. अपने परिचितो को मी अपने सम्बन्ध में यथासाध्य कभी न लिखने दिया। वे किमी प्रकार के वाद-विवाद मे भी न पडते थे। वे अकृतज्ञ और बुराई करनेवालो से भी प्रेम से ही मिल लेते थे। कुछ ऐसे महात्मा है, जिन्होने जीवन भर प्रमाद जी की आर्थिक सहायता प्राप्त की, उनके कारण उनकी प्रसिद्धि मैं भी वृद्धि हुई, पर वे अकारण उनकी निन्दा-'तुनि करते रहे । और इतने पर भी प्रसादजी उनकी सहायता से कभी पराङ्मुख न हुए । मै उन दिनो उद्दण्ड था-"एकैकमप्यनर्थाय" का शिकार था, क्षारीरिक संपत्ति भी थी। मैं ऐसे एक महात्मा पर विगडा और उन्हे पीटने का विचार किया। परिणाम पर विचार करते हुए मैने प्रसादजी से एक दिन इतना ही पूछा-- यदि मैं किसी को पीट दूं तो क्या होगा? उन्होंने कहा कि उस व्यक्ति की हैसियत पर निर्भर है, दो-चार रुपये जुर्माने से जेल तक हो सकती है। पर सुनो, अमुक के विषय मे तुम्हारा यह विचार उचित नही । उसे अपनी करने दो। तुम्हे क्या ! मैं न माना तो उन्होने कहा-तो लोग कहेगे कि इन्होंने (प्रसाद जी ने ) संस्मरण पर्व : ९३