पिटवाया। तुम यह पसन्द करो तो जो चाहो करो। इस पर मुझे शान्त ही हो जाना पड़ा। मैं जिनको पीटना चाहता था -ठीक उन्हें ही प्रसाद जी कैसे समझ गये, यह मैं न समझ पाया। किसी प्रकार उनके प्रति मेरा असंतोष लक्षित कर लिया होगा! मेरी उद्दण्डता प्रसाद जी तथा प्रेमचन्द जी के कारण बहुत कुछ समाप्त हो गयी। प्रसाद जी लेखकों को बहुत अधिक प्रोत्साहन देते थे-सीमा के पार । एक दिन कुछ लोग बैठे थे। ब्रजभाषा की कविताएं पढ़ी जा रही थीं। किसी में 'किरच' शब्द आया। प्रसाद जी ने पढ़नेवाले से इसका अर्थ पूछा, फिर और लोगों से । अन्त मे मुझसे पूछा और कहा-अब्धिलंधित एव वानर भट., कित्वस्य गंभीरतां । आपा- तालनिमग्न पीवरतनुर्जानाति मंथाचल.। मेरी इस प्रशंसा में न उन्होंने उपहास किया था, न व्यंग । मेरी योग्यता से भी वे परिचित थे, बानरों में भी मैं 'भट' तक न था; पर यह उनका प्रोत्साहन था-सीमा के पार । प्रसाद जी अपनी युवावस्था में बहुत व्यायामशील और स्पृहणीय शारीरिक संपत्ति के अधिकारी थे । बाद में उन्होने व्यायाम छोड़ दिया था, पर उन्हें देखने से ही इसका प्रमाण मिलता था। एक बार प्रसाद जी नाव पर सैर करने निकले। उस दिन कोई पर्व था। लोग गंगाजी में दीपदान कर रहे थे। अनेक दीप स्थिरप्राय जल में धीरे-धीरे आगे बढ रहे थे। एक दूसरी नाव पर बैठे एक अंग्रेज ने सहमा प्रसाद जी से पूछा -इन दीपों का क्या अर्थ है ? प्रसाद जी बोले-ये दीप जीवन के प्रतीक है, जो प्रति क्षण आगे बढ़ रहे हैं अपने स्नेह-शक्ति के अनुसार, लहरों से बचने की शक्ति के अनुसार ये आगे बढ़ेंगे, जलते रहेंगे। इन सवका लक्ष्य वही एक महासमुद्र है। वह अंग्रेज यह सुनकर कुछ भावमग्न हो गया था। ऐमे थे प्रमाद जी, मानव रूप मे । एक कवि का श्लोक वाद आता है-- हा-हा धिक् ! द्रमसंकथासु यदयं कल्पमोपि द्रुमः ! ( धिक्कार है कि पेड़ों की बात चलने पर कल्पद्रुम को भी पेड़ ही कहा जाता है ) क्या कहा जाय ! 'सर्वकषो हरति कालमहाप्रवाहः' '-सब कुछ को। सोचता हूँ, प्रसाद जी की ही एक पंक्ति बरबस मुंह से निकल पड़ती है-'वे कुछ दिन कितने सुन्दर थे .......!' ९४: प्रमाद वाङ्मय
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/३९८
दिखावट