महाकवि 'प्रसाद' -विश्वम्भरनाथ जिज्जा मैं उन दिनों काशी-नरेश के चीफ सेक्रेटरी (दीवान) के प्रधान सचिवालय (सेक्रेटेरिएट) में क्लर्क का भी काम करता था। किन्तु बाद में पिताजी की वृद्धावस्था के कारण मुझे उनका काम मिल गया। राज्य के सभी बगीचे दीवान ने एक अन्य अधिकारी के अधीन कर दिये थे, किन्तु महाराज का सर्वोत्तम उद्यान रामबाग और कई अन्य बगीचे मेरे ही अधीन थे। किन्तु इसके बाद महाराज बहादुर की आज्ञा मुझे नायब तहसीलदारी का काम सिखाने की हुई, जिसे मैंने सीखना शुरू कर दिया। एक दिन दे।। कि वहाँ अनेक नंगे-भूखे-फटेहाल किसानों का हुजम एकत्र था और लगान दे न सकने के कारण तहसीलदार जबड़े पीस-पीसकर उन पर क्रुद्ध हो रहे थे. इसके बाद तहसीलदार के सिपाहियों द्वारा उन किसानों की दुर्गति हुई। ऐसे दारुण दृश्य में प्रायः देखता और काशी आकर बाबू जयशंकर प्रसादजी को वहाँ का सब हाल सुनाता था। प्रसादजी पहले तो कुछ हंसते, पर तुरन्त ही फिर बुजुर्ग की तरह गम्भीर मुद्रा में मुझे समझाने लगते-'काम अच्छी तरह से सीखो और काम में मन लगाओ। यह नहीं कि तुम 'बहरी तरफ' पिकनिक या सैर करने की तरह गये और गाँव की सैर करके चले आये ! तहसीलदारी के कागजों को पढ़ो, उन्हें समझो और मुहरिर से मदद लो।' मेरा मन उस काम से कुछ उचाट होने लगा। फिर मैं बहाने करने लगा और कई-कई दिन नहीं जाता था। X X x सन् १९१४ ई० में काशी राज्य को अंग्रेजों ने स्वायत्त शासन प्रदान किया। महाराज को प्रभाव में रखकर दीवान ने राज्य में प्रजा पर विविध प्रकार के कर लगाये। करों के बोझ से प्रजा पीड़ित होने लगी। महाराज को भी ये नये-नये कर लगाना अच्छा नहीं लगता था। उन्होंने एक दिन मेरे सामने, भरे दरबार में अपने कुछ मुसाहबों कहा- 'राजा को इस तरह कर लेना चाहिये, जैसे सूर्य समुद्र से जल लेता है और समुद्र को संस्मरण पर्व : ९५
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