पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४००

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. कुछ मालूम नहीं होता। और फिर, राजा को देना भी इस तरह चाहिये, जैसे वर्षा का जल बरसता है और सबको दिखाई देता है।' महाराज के मुंह से राजनीति का ऐसा महत्वपूर्ण वाक्य सुनकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। बाद में यह घटना मैंने प्रसावजी को सुनायी, जिस पर उन्होंने प्रसन्नता के साथ महाराज की प्रशंसा करते हुए कहा कि 'महाराज शास्त्रों के ज्ञाता हैं । वे धर्म, नीति, राजनीति, सब जानते हैं।' X xa x 'अखबारे आम' में छपे हुए अपने लेख मैं महाकवि बाबू जयशंकर प्रसाद को दिखाया करता था। प्रसादजी मेरे प्रिय मित्र ही नहीं, बड़े भाई के समान पूज्य थे। वे मेरे उर्दू लेखों को देखकर प्रसन्न होते; किन्तु एक दिन उन्होंने कुछ खीझकर कहा-'क्या जी, तुम उर्दू में लिखते हो ! हिन्दी में क्यों नहीं लिखते ? तुम्हें हिन्दी में लिखना चाहिये।' मैंने जब कहा कि 'हिन्दी में लिखा नहीं जाता तो उन्होंने कहा- 'वाह ! कैसे नहीं लिखा जाता ? तुम हिन्दी में कुछ लिखो तो ! कोई कहानी ही लिखो ! बस लिखना शुरू कर दो और बराबर लिखते जाओ, अन्त में कहानी तैयार हो जाएगी।' इस पर कुछ उत्साहित होकर मैंने हिन्दी में लिखने का प्रयास आरम्भ किया। किसी अंग्रेजी पत्रिका में रूस की सुन्दरी महारानी कैथराइन के सम्बन्ध में एक लेख पढ़ा था, जिसे मैंने भावात्मक कहानी के रूप में लिखा, जिसका शीर्षक था -'सौन्दर्य की महिमा'। यह कहानी काशी की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका 'इन्दु' में प्रकाशित हुई थी। 'इन्दु' पत्रिका के सम्पादक बाबू अम्बिका प्रसाद गुप्तजी थे जो प्रसादजी के भानजे थे। प्रसादजी प्रथम व्यक्ति-श्रेष्ठ थे, जिनकी प्रतिभा और लेखन-कला से मैं प्रभावित हुआ और जिन्होंने मुझे लिखने के लिए उत्साहित किया। गुप्तजी का भी अपार स्नेह था, जो मेरी कहानियों को वे आवश्यक संशोधनों के साथ 'इन्दु' में प्रकाशित करते थे। इतना ही नहीं, वे मुझे लिखने के लिए विवश करते थे। 'बीसवीं सदी' (गुजराती पत्रिका) में मेरी कहानी 'परदेसी' के प्रकाशित होने पर एक दिन प्रसादजी ने प्रसन्न मुद्रा में कुछ हम कर मुझसे कहा-'आज तो तुम बहुत खुश हो, क्यों!' मैंने पूछा--'क्यों, क्या बात है ?' उन्होंने 'बीसवीं सदी' मेरे सामने फेंकते हुए कहा-'तुमने देखा नहीं ? इसमें तुम्हारी 'परदेसी' छपी है।' गुजराती पत्रिका में अपनी कहानी सचित्र छपी देखकर कुछ हर्ष और आश्चर्य भी हुआ। ९६: प्रमाद वाङ्मय