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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४०१

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प्रसादजी ने कहा, "हमने 'इन्दु' में तो यह पढ़ी थी, पर इसका गुजराती अनुवाद पढ़कर बड़ा मजा आया। तुम खूब बाजी मार ले गये !' 'बाजी मारने' का रहस्य यह था कि उस समय बहुत कम हिन्दी लेखकों की कहानियां अन्य भाषाओं की पत्रिकाओं में अनहित होकर प्रकाशित होती थीं। इस तरह प्रसादजी के समान मित्रों का प्रेम और प्रोत्साहन मुझे लेखन-कला और साहित्य-सेवा की ओर निरन्तर बढ़ाता रहा। .. मैं यद्यपि राजमेवा (काशी राज-दरवार) में था, पर मन हर समय बहुत ही असंतुष्ट और अशांत रहता था। कभी-कभी वाबू जयशंकर 'प्रसाद' से राजसभा की बातें करता, और जब अपने अशान्त मनोभाव प्रकट करता तो प्रसादजी कहते'राजदरबार में ऐसा हुआ ही करना है। तुम लड़कपन मत करो, काम में मन लगाओ और मब कुछ अच्छी तरह सीखो !' किन्तु मैं अपनी लेखन-कला की साधना में व्यस्त रहता था।""इधर लेख और कहानी लिखना मेरा बराबर जारी रहा। प्रमादजी के यहाँ प्रायः नित्य ही बैठकें होती, जहाँ अन्य लेखक और कवि आदि आते, साहित्य-चर्चा और आमोद-प्रमोद होता रहता था ।" उन्हीं दिनों संयोग से 'इन्दु' के सम्पादक गुप्त जी ने मुझसे कहा-"श्रीवेंकटेश्वर समाचार-पत्र (बम्बई ) में एक सहकारी सम्पादक की आवश्यकता' छपी है। चालीस रुपया मासिक वेतन है और रहने के लिए अलग स्थान भी देगे। क्या आप वहां जाना पसन्द करेगे ?" गुप्त जी वहां जाने के लिए मुझे कुछ देर तक समझाते रहे । इसके बाद हम दोनों प्रसादजी के घर गये। उन्होंने भी मुझे उत्साहित किया और कहा-"तुम्हें वहां कोई कष्ट न होगा। बम्बई में मुख्य खर्च रहने का है। तीस-चालीस रुपये से कग में वहां कमरा नही मिलता। सो, कमरा तुम्हें वहां मिलेगा। तुम्हें तो अभी अखबार का काम सीखना है !" कई दिनों तक विचार होता रहा; अन्त में मैने बम्बई जाने का निश्चय कर लिया। प्रसादजी ने अम्बिका प्रसादजी ( 'इन्दु' के सम्पादक ) से कहा कि "तुम हाजी मुहम्मद को एक पत्र इनके बारे में भेज देना, और उन्हें यह भी लिख देना कि यह कुछ ऐसे जीव हैं जो अपना खयाल कम रखते हैं।" बम्बई में श्री हाजी मुहम्मद अल्लारखिया शिवजी एक गुजराती मासिक पत्रिका 'बीसवी सदी' के स्वामी और सम्पादक थे, जिनसे प्रसादजी या गुप्त नी का कोई संस्मरण पर्व : ९७