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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४०२

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माक्षात् परिचय तो नही था, पर 'इन्दु' के द्वारा गुप्तजी का इनसे घनिष्ट सम्पर्क और प्रेम हो गया था। गुप्तजी ने मेरे सम्बन्ध में एक पत्र इन्हें भेज दिया। विदाई के समय प्रसादजी ने मुझे कुछ सत्परामर्श दिया। उन्होने कहा-"देखो, तुम प्रेस और पत्र में काम करने के लिए जा रहे हो। वहाँ कुछ लोग तुमसे ऊंचे होगे, जैसे पत्र के स्वामी और सम्पादक, उनकी आज्ञा का मदा पालन करना और कभी उनकी अवज्ञा न करना। कुछ लोग तुमसे नीचे होगे, जैसे प्रूफ-रीडर, कम्पोजिटर आदि; उनसे सदा प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना। कभी किमी से झगडना नही, और अगर कभी कोई झगड़े की बात आ जाए तो तुम चुप रह जाना । अपने ऊपर नियंत्रण रखना।" ___ प्रसादजी ने घर की बनी मिठाई ( मगदल के लड्डू ) एक टिन के बक्स में दी और अपने यहां का सर्वोत्तम जर्दा-तम्बाकू का एक डिब्बा दिया, और हंसकर कहा कि "सारी शरारते तो तुम्हारे पेट मे भरी हुई है, लेकिन बम्बई मे जरा ठिकाने से रहना।" x मन् १९२० ई० के जनवरी या फरवरी मास तक मै बम्बई मे रहा। इस बीच मे एक वार छुट्टी लेकर मै अपने घर काशी और फिर प्रयाग भी गया था। उस समय कुम्भ का पर्व पड़ा था। काशी मे बाबू जयशकर प्रसादजी भी अपने आठ-दस मित्रों सहित प्रयाग आये, जहां हम सबने कुम्भ का स्नान किया। इसके बाद वे फिर काशी लौट गये और मैं बम्बई के लिए विदा हुआ। x मैं 'आज' के सम्पादकीय विभाग मे काम करता था, पर न जाने क्यों, प्रधान सम्पादक पराडकरजी मुझसे प्रसन्न नहीं रहते थे।......"कभी-कभी पराडकरजी का हम सभी सहकारियों से ऐसा अवांछनीय व्यवहार होता कि हम लोग मन-ही-मन कुढकर रह जाते। ........"मैं वहां की बाते आकर प्रसादजी को सुनात।। वे यह नही चाहते थे कि मैं बनारम से कही बाहर जाऊँ, इमलिए वे मुझे समझाते और धैर्य के साथ काम करने के लिए कहते थे। एक दिन मैंने प्रसादजी से कहा कि 'आज' के सम्पादकों का व्यवहार मेरे लिए असह्य हो गया है। मैं अब यहाँ काम नही करूंगा। कानपुर के 'वर्तमान' पत्र के सम्पादक पं० रमाशंकर अवस्थी ने मुझे बुलाया है। मैंने अवस्थीजी का पत्र प्रसादजी के सामने रख दिया, जिसमें उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे बुलाया था। इसके ( त्यागपत्र देने के ) बाद मैं आकर प्रसादजी से मिला और उन्हें वहां का x ९८ : प्रसाद वाङ्मय