पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४०३

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x मव हाल मुनाया। उन्हें मेरा 'आज' से हटना अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कहा--तुम बहुत जल्दबाजी और लड़कपन करते हो। मैंने कहा-जो हो, पर मैं अव कानपुर जाता हूँ। X . X मैंने दैनिक 'भारतमित्र'.( कलकत्ता ) के सम्पादकीय विभाग में लगभग ढाई वर्ष काम किया। एक विशेष कार्य गे मैं अपने घर काशी लौट आया; और कुछ दिनों के वाद सुना कि कट्टर मनातनी मारवाड़ियों ने 'भारतमित्र' को खरीद लिया है। ये लोग ब्रिटिश सरकार के खुशामदी, चापलूस थे और महात्मा गांधी तथा राष्ट्रीय काँग्रेस के घोर विरोधी थे । इन लोगों का सम्पादकाचार्य पं० गर्दैजी से नीतिगत मतभेद हो गया। उसके बाद गजी काशी, अपने घर चले आये। फिर मैंने 'भारतमित्र' कभी देखा भी नहीं और मुझे नहीं मालम कि उसकी क्या दशा हुई। काशी - [रा बैठकें फिर बाद जयशकर 'प्रसाद' के यहाँ पूर्ववत् होने लगीं। वहाँ अधिकतर माहित्य-चर्चा, विनोद और बहस रहती थी। एक दिन मैं 'भाज' पत्र लिये प्रमादजी के यहाँ गगा और कहा "देखिये, दिल्ली के ख्वाजा हसन निजामी ने महात्मा गांधी को मुमलमान और खलीफा बनने का निमंत्रण दिया है !" प्रम दजी ने उत्सुकता मे कहा --"कहाँ, कहाँ ? देखें !" मैं 'आज' उनके सामने रख दिया। उनके यहां भी 'आज' आता था, उसे उन्होंने गंगवाया । वे ख्वाजा हसन निजामी का लेख पढ़ते जाते और मुस्कराते जाते थे । जब वह लेख पढ़ चुके तो मैंने कहा "मैं इसका जवाब देना चाहता हूँ।" उन्होंने मलाह दी कि-"हाँ, जवाब जरूर दो, लेकिन जरा पराकरजी से मिल लो !" मैंने कहा- "मैं अभी उनके पास जाता हूँ !" __ दिन के लगभग १२ बजे मैं 'पाज' कार्यालय गया और वहाँ प्रधान सम्पादक पं० बाबूगव विष्णु पराड़करजी से मिला। मैंने उनमे ख्वाजा हसन निजामी के उस लेख की चर्चा की और कहा कि "मै इसका जवाब देना चाहता हूँ।" पराड़करजी प्रसन्न मुद्रा में थे और उन्होंने मेरी बात मान ली, पर इतना कहा कि "लिखिये, देखें आप क्या लिखते है !" मैं वहाँ से घर लौटा और लेख लिखने में लग गया। दो दिन मे लेख तैयार हुआ, जिमे ले जाकर मैंने पहले प्रसादजी को दिखाया। मैंने उसे पढ़कर उन्हें सुनाया संस्मरण पर्व : ९९