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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४०४

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और उन्होंने उसे पसन्द किया। इसके बाद दिन के २ बजे में, 'आज' कार्यालय जाकर पराड़करजी से मिला और उन्हें लेख दे दिया। उन्होंने मुझसे कहा कि "आप इसे पढ़कर सुनाइये !" ___ मैंने लेख आरम्भ से अन्त तक , उन्हे सुना दिया। वे कुछ सन्तुष्ट और प्रसन्न हुए, और लेख उन्होंने अपने पास रख लिया। दूसरे दिन वह लेख 'आज' में प्रकाशित हुआ, जिस पर एक सुखद सनसनी-सी फैल गयी। प्रसादजी ने और अनेक मित्रो ने उसकी सराहना की और मुझे बधाई दी।....."

काशी, २० जून १९२७ ई० । दशाश्वमेध घाट पर एक पान की दूकान से पान खाकर मैं जब आगे बढ़ा तो 'भारत मित्र' के भूतपूर्व सम्पादक श्रद्धेय गर्दैजी से मेरी भेंट हुई । वे प्रेमपूर्वक मिले और बोले-"कहिये, कलकत्ते चलियेगा" मैंने पूछा-"क्या बात है ? क्या आप कलकत्ते जा रहे है ?" उन्होंने कहा-"डॉक्टर एस० के० बर्मन के सुपुत्र श्री चुन्नीलाल बर्मन एक साप्ताहिक पत्र निकाल रहे है । हम जा रहे है। यदि आपकी इच्छा हो और उत्साह हो तो चलिये !" मैंने कहा-"हाँ, चलूंगा ! जब आप है तो फिर मुझे क्या भय या संकोच है !" मैंने कलकत्ता जाने के सम्बन्ध मे श्री जयशंकर प्रसादजी से बात की। उन्होंने प्रसन्नता के साथ कहा-"जाओ | गर्देजी है तो फिर तुम्हे क्या डर है !" प्रसादजी ने यह भी कहा-'तुम्हारा तो अब जीवन ही लेखक और पत्रकार का हो गया है। तुम्हे इसमें सफलता मिली है। तुम्हारा मन अब काशी मे तो लगता नही । बम्बई और कलकत्ते की हवा तुम्हे लग चुकी है। नही तो यही काशी मे रहते, 'आज' में काम करते...!" ..."गर्दैजी कलकत्ते चले गये थे, और कई दिनो के बाद मैं भी रवाना हुआ। प्रसादजी की यह बड़ी प्रबल इच्छा थी कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कहानी-लेखकों की कहानियों का एक संग्रह निकाला जाए, जिसके सम्बन्ध में उन्होंने मुझ से कई बार चर्चा की थी। मैं उस समय 'श्रीकृष्ण सन्देश' में काम करता था और छुट्टियों में जब मैं काशी आया तो प्रसादजी ने फिर मुझसे उस संग्रह के बारे में बातें कीं। उन्होंने मुझसे कहा कि "श्री विनोदशंकर व्यास यह संग्रह प्रकाशित करने के लिए कलकत्ता जाएंगे। हमने उनसे कहा है कि तुम्हारी भी एक कहानी उसमें रखें। १०० : प्रमाद वाङ्मय