पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४०५

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विनोद ने इसका विरोध किया, पर हमने उनसे कहा कि नहीं, जिज्जा की एक कहानी उसमें अवश्य रहेगी । वे हम लोगों के साथ के कहानी-लेखक हैं।" मैंने उस समय प्रसादजी से तो कुछ नहीं कहा, पर 'विनोद' द्वारा विरोध की बात सुनकर मुझे कुछ बुरा मालूम हुआ और मैंने सोचा कि मैं इस संग्रह में अपनी कहानी नहीं दूंगा। इसके बाद मैं कलकत्ते चला गया, और वहाँ एक दिन सायंकाल जब मैं 'मतवाला' (साप्ताहिक पत्र) कार्यालय गया तो देखा कि श्री विनोदशंकर व्यास वहाँ मौजूद हैं । मतवाला के स्वामी और सम्पादक श्री महादेव प्रसाद सेठ मेरे प्रेमी मित्र थे। उन्होंने मुझसे कहा-"जिज्जाजी, अपनी एक कहानी आप 'मधुकरी' के लिए दीजिये।" मेने कहा-"सेठजी, मुझे बड़ा खेद है कि मेरे पास अपनी कोई कहानी नहीं है।" उन्होंने कहा-"आपकी एक कहानी हमारे पास है। वह हमें बहुत पसन्द है। हमने उसे अपने महत्वपूर्ण लेखों की 'फाइल' मे रखा है। आप केवल उसे छापने की अनुमति हमें दे दीजिये।" मैंने पूछा-"वह कौन-सी कहानी है ?" उन्होंने कहा-"परदेसी !" मैंने कहा-"वह तो एक बड़ी वाहियात कहानी है। उसे आप क्या छापेंगे !" उन्होंने तुरन्त कहा-"आपसे इससे क्या मतलब ? वह आपके लिए वाहियात होगी, होगी ! आप उसे छापने की अनुमति भर दे दीजिए ! उस कहानी में एक आह है, एक कसक है। हमने उसे न जाने कितनी बार पढ़ा है !" सेठजी के प्रेमपूर्ण आग्रह के सामने मेरा विरोध ठहर न सका। मैंने कहा--- "अच्छा, अगर आपको वह पसन्द है तो आप उसे छापिये।" सेठजी उस समय हुक्का पी रहे थे। उन्होंने कहा- "हमें बड़ी खुशी हुई कि आपने हमारी बात मान ली। अच्छा, अब आप अपना एक फोटो दीजिये, उसे हम कहानी के साथ प्रकाशित करेंगे।" "और दूसरे दिन मैंने उन्हें अपना फोटो दिया जो 'मधुकरी' में कहानी के साथ प्रकाशित हुआ। कुछ दिनों के बाद मैं काशी आया और मैंने प्रसादजी को यह सब वृत्तान्त सुनाया। वे हंसने लगे और बोले-"शायद विनोद की तुमसे कहानी मांगने की हिम्मत नहीं हुई। उसने सेठजी से कहा होगा ! तुमसे उसकी अच्छी चखचख चल रही है !" प्रसादजी फिर हँसने लगे। मैंने कहा-"मैंने तो विनोद का कुछ बिगाड़ा नहीं है। लेकिन न जाने क्यों वे संस्मरण पर्व : १०१