पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४०६

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मुझसे बुरा मानते है। हालांकि सर्वप्रथम मैंने ही उन्हे आपसे मिलाया था। अब वे आपके यहाँ प्रधान बन गये है, और मेरी मिथ्या शिकायते आपसे किया करते है।" प्रसादजी ने हंसते हुए कहा - "विनोद को छोडो ! लेकिन तुममे भी लडकपन कम नही है | तुम भी तो रह-रहकर चुहल किया करते हो ।...." कलकत्ते मे मेरे एक बहुत ही घनिष्ट मित्र श्री मुकुन्दीलाल गुप्त है, जो श्री जयशकर प्रसादजी के रिश्ते मे भाई लगने थे। प्रसादजी काशी से कही वाहर जाना पसन्द नही करते थे, पर श्री गुप्त के भाई के ब्याह के अवसर पर, उनके आग्रह और अनुरोध के कारण वे सपरिवार कलकत्ता आने के लिए विवश हुए। उनके आने से मेरी आर मुकुन्दीलाल की खुशी का कोई ठिकाना न रहा । ये लोग जाति के कान्यकुब्ज हलवाई-वैश्य ये और कुछ प्राचीन परम्परा के अनुयायी थे। प्रसादजी एक मास मे अधिक कलकत्ते में रहे । खूब घुमाई हुई। जब ब्याह की सब रस्म और दावते समाप्त हो गई नो एक दिन उन लोगो का अपने जाति-भाइयो का एक निजी भोज हुआ, जिसमे कुछ चुने हुए प्रतिष्ठित लोग सम्मिलित हुए । इस दावत का प्रबन्ध एक अलग कमरे में हुआ था। ___इसके बारे में मुझे कुछ मालम नहीं था, पर मै सयोग से जब दिन क ग्यारह बजे वहाँ पहुंचा तो देखा-सब लोग फर्श पर खाने बैठ गय है। मुझे देखते ही प्रसादजी ने कहा "आओ-आओ । हाय धोकर आओ।" ____ मैं हाथ धोकर अन्दर गया, प्रसादजी कुछ हटकर खिसक गये और मै उन्ही की बगल में बैठ गया। मोजन 'कच्चा' था, याने भात-दाल आदि । मेरे बैठ जाने पर एक सज्जन ने कुछ आश्चर्य और आपत्ति । साथ, प्रसादजी की ओर देखकर केवल एक तम्बा-सा "भैया ।।।" किया। प्रसादजी ने कहा "जय गोपाल की, जय गोपाल की । अब महादेव करो।" आर पाना शुरू हो गया। भाजन समाप्त होने के बाद मुझे कोई श्रावश्यक कार्य था और प्रसादजी मे तुरन्त विदाई लेकर मैं चला आया। इसके बाद की कहानी श्री मुकुन्दीलाल ने मुझे इस प्रकार सूनायी "आप तो भोजन के बाद चले गये, पर यहाँ एक बडा मनोरजक दृश्य उपस्थित हुआ। हमारी जानि के बडे तोग मब प्रमादजी के कमरे में आये और बोले- 'भया, आपको हम लोग बहुत मानते हैं। आपके एक इशारे पर हम लोग न जाने क्या कर डाले ! हम मब आपका मह देखा करते है कि आप क्या आज्ञा दे और हम क्या करे । लेकिन भैया, हम लोग आपसे केवल एक बात पूछना चाहते है, जिसका आप समाधान करे । आपने विश्वम्भरनाथ जी को बिरादरी की दावत मे क्यो बुला लिया ? एक तो वह काश्मीरी, फिर ऊपर मे यह कि वह मासाहारी | आपने उन्हे क्यो शरीक किया ?" १०२ प्रसाद वाङ्मय