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श्री मुकुन्दीलाल ने आगे कहा-"इस पर भैया पहले तो खूब हंसे, फिर बोले कि 'अभी तो हम आप लोगों को शास्त्र के अनुसार बताते हैं, फिर लोकाचार के अनुसार बताएंगे। शास्त्र में लिखा है कि यदि कोई ब्राह्मण किसी वैश्य या शूद्र के साथ खा ले तो वह नहीं, वरन् ब्राह्मण पतित होता है। इसके बाद प्रसादजी ने एक के बाद एक श्लोक पढ़े और कहते जाते थे कि यह स्मृति का श्लोक है, यह उपनिषद का है, यह अमुक पुराण का है, यह भागवत का है। इन सब श्लोकों का तात्पर्य यही है कि ब्राह्मण और वैश्य में कोई अन्तर नहीं है, और अगर कुछ हो भी तो वह ब्राह्मण के ही मत्थे जाता है। साथ में भोजन करने से अगर कोई कुछ अशुद्ध होता है तो ब्राह्मण, वैश्य नहीं ! पर हम जानते हैं कि विश्वम्भरनाथ जी को इसकी परवाह नहीं है। रही मांसाहार की बात, तो मांम हमारे शास्त्रों में वर्जित नहीं है। पहले सभी ब्राह्मण और अन्य हिन्दू लोग मी मांस खाते थे। इसके लिए प्रमाण हमारे धर्म शास्त्रों में भरे पडे है । रही लोकाचार की बात, सो आजकल का लोकाचार यही है कि हम सब समान हैं। हमारे शास्त्रों में भी इसका कोई भेदभाव नहीं है, और जो अन्तर दिखाई देता है, वह गन पद का है, कृत्रिम है, जिसे स्वार्थी ब्राह्मणों ने अपना बड़प्पन कायम रखने के लिए बाद में वढाया है। विश्वम्भरनाथ जी काश्मीरी सारस्वत ब्राह्मण हैं, उनके वंश को हम अच्छी तरह जानते हैं। उनके साथ भोजन करने से कोई अपवित्रता आयी हो-इस खयाल को आप लोग अपने मन से बिल्कुल निकाल दीजिए !" मुकुन्दीलाल जी ने कहा--"प्रसादजी ने ये सब बाते श्लोक सुना-सुनाकर ऐसे पांडित्य के साथ कही कि सब लोग चुप हो रहे ।" दूसरे दिन प्रसादजी से भेंट होने पर जब मैंने पूछा तो उन्होंने संक्षेप में केवल इतना ही कहा कि "प्राचीन रूढ़ियों में पले हुए लोगों का भ्रम दूर होने में बहुत विलम्ब लगता है। तुम और हम या कोई बड़ा नेता भी इसमे क्या कर सकता है ! यह सब धीरे-धीरे होगा। शताब्दियों का बिगड़ा हुआ समाज एक दिन मे नही सुधर सकता !" कलवात्ते में लंगभग सवा महीना बीत जाने पर प्रसादजी अब काशी लौटने के लिए व्यग्र थे, और उनसे अधिक उनके परिवार की स्त्रियाँ व्यग्र और चिन्तित थीं। कई तिथियां निश्चित होकर टल गई, यहाँ तक कि रेलगाड़ी में सेकेंड क्लास का एक डिब्बा भी रिजर्व होकर रद्द ही गया। अन्त मे एक दिन निश्चित हो ही गया और सेकेंड क्लास का डिब्बा फिर रिजर्व हुआ। मैं उस दिन प्रातःकाल आठ बजे उनके पास पहुंच गया। किन्तु उस दिन के संस्मरण पर्व : १०३