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समाचार-पत्रो से मालूम हुआ कि बनारस मे बड़ा भीषण हिन्दू-मुस्लिम दंगा हो गया। मैंने प्रसादजी से कहा - "ऐसी स्थिति मे आप वहां कैसे जाएंगे ?" प्रसादजी ने कहा--"हां, सुबह से हम भी यही सोच रहे हैं।" मैंने कहा- "इसमे सोचना क्या है ! दंगे की स्थिति खतरनाक होती है। माना कि आपकी सुरक्षा के लिए वहाँ सब प्रबन्ध है, किन्तु फिर भी अघटित घटनाओ की सम्भावना कोई नही जान सकता। मेरे खयाल से, जोखिम लेना आपके लिए किसी तरह भी उचित नही है !" प्रसादजी ने हंसकर कहा-"अरे यार, स्त्रियों बहुत नाराज होगी। और फिर, रेल का डिब्बा भी रिजर्व हो गया है।" ____ मैंने कहा-"रिजर्वेशन फिर रद्द हो सकता है। रही स्त्रियो की नाराजी की बात, मो उन्हे आप फिर खश कर सकते हैं। किन्तु जोखिम तो किसी भी दशा मे नही उठाना चाहिए।" मुकुन्दीलाल जी भी हम लोगो की नाते सुन-सुनकर मुस्करा रहे थे, और वे भी हृदय से चाहते थे कि प्रसादजी अभी काशी न जाएँ, कलकत्ता और कुछ दिन रहे तो अच्छा है। उन्होने कहा - "हाँ भैया, विश्वम्भरनाथ जी ठीक कहते है । जोखिम उठाना उचित नही है। दस-बीस दिन और यहाँ रहिये, फिर शान्ति होने पर काशी जाइयेगा।" ____बहुत कुछ विचार-विमर्श होने के बाद प्रसादजी हम लोगो से सहमत हुए और उन्होने काशी न जाने का निश्चय किया। एक आदमी रेलवे रिजर्वेशन रद्द कराने के लिए भेजा गया। प्रसादजी के सुपुत्र दशवर्षीय चिरजीव रत्नशकर ने भीतर स्त्रियो मे जाकर चिल्ला-चिल्लाकर घोषणा कर दी कि "हम लोग काशी नही जाएँगे। विश्वम्भरनाथ जी ने बाबा को मना कर दिया है। बनारस मे दगा हो गया-बडा अच्छा हुआ ! हम कलकत्ता अभी और घूमेगे।" __ इस पर रत्नशंकर की माता और अन्य स्त्रियां, जो काशी लौटने के लिए उत्सुक और उतावली हो रही थी, बहुत नाराज हुई और उनमे से किसी ने यह भी कहा-"यह विश्वम्भरनाथ जी कौन है रोकने वाले ! जब होता है, आकर एक अडंगा लगा देते है ।" बालसुलभ स्वभाव से चि. रत्नशकर ताली बजा-बजाकर चिल्लाने लगे-"हम कलकत्ता अभी और घूमेगे । हम बनारस नही जाएँगे ! हम बनारस नहीं जाएँगे !" भीतर से एक दामी, जो काशी से प्रसाद-परिवार के साथ आयी थी, कमरे मे आकर बोली-"यह 'बच्चा' बहुत ऊधम मचाये है।" इतने मे 'बच्चा' वहुत भोले, सीधे-सादे बनकर आये और पिता के सामने १०४ : प्रसाद वाङ्मय