पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४१४

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विरोधी नही था जैसा कि आज सोवियत रूस है, जिसका प्रभाव जापान से अधिक आज पूर्व और पश्चिम की कूटनीति में फैला हुआ है। परिस्थिति अब कुछ परिवर्तित रूप मे प्रायः ज्यो की त्यों है। ___ आज अन्तर्राष्ट्रीय शतरंज (क्यूबा से वियतनाम तक) को देखकर प्रसादजी की एक भविष्यवाणी तो बहुत याद आती है, जो उन्होने भारत को लक्ष्य मे रख कर की थी। उन्होंने कहा था___ "नेपाल और भूटान की सीमाओ को चीरती हुई, और पशियन गल्फ (ईरानी खाडी) से भी शत्र की फौजे और जंगी बेडे लडने आयेगे।" मैंने पूछा-वह शत्रु कौन होगा? उन्होने कहा "हम यह नहीं कह सकते कि यह शत्रु कौन होगा। पर उस महायुद्ध मे भूमध्य सागर और स्वेजनहर भी अंग्रेजों के लिये बन्द हो जायगी और एटलान्टिक तथा पैसिफिक सागरो मे घमासान विश्वव्यापी महायुद्ध होगा।........" ये बाते अनेक वर्षों पूर्व की है, किन्तु आज अणुबम, उद्जनबम आदि की जटिल अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थिति क्या कुछ कह रही हे ? भारत यद्यपि स्वतत्र है, पर क्या साम्यवादी चीन का भारत की सीमा तक चढ आना ब्रिटेन के लिये भी चिन्ता का विषय नही है? तभी तो चीन का आक्रमण होने पर ब्रिटेन और अमेरिका ने भी भारत को शस्त्रो से सहायता देने मे विलम्ब नही क्यिा। क्योकि चीन के द्वारा साम्यवाद का भारत की ओर अग्रसर होना पश्चिमी राष्ट्रो के लिये सबसे बडी चिन्ता का विषय है। अमेरिका के बारे मे प्रमादजी की कभी अच्छी राय नही थी। वे यह कुछ जोर के साथ कहते कि 'अमेरिका ऐन वक्त पर मानव जाति को धोखा देगा।' प्रसादजी देशभक्त होते हुए कुछ अन्तर्राष्ट्रीय भावना के व्यक्ति थे। भारतीय नेताओ मे वे लोकमात्य तिलक के अधिक भक्त थे, महात्मा गाधी को भी मानते थे, पर अनेक राष्ट्रीय प्रश्नो पर वे गाधी जी के साथ बहुत दूर तक जाने के लिये तैयार नही थे। किन्तु भावुक होकर कहते कि "इस मनुष्य मे लेनिन की तरह अन्तर्राष्ट्रीय भाव कुछ अधिक हैं । देखो न ससार के सभी देश उन्हे (गाधीजी को) अपना नेता बनाना चाहते है .....।' ___ एक बार महात्मा गाधी अपनी इग्लिश शिष्या मीरा बेन (मिस स्लेड) के साथ काशी मे श्री विश्वनाथ जी का दर्शन करने गये थे इसके बाद काशी के कुछ कट्टरपन्थियो ने गाधीजी के विरुद्ध भद्दे और निन्दनीय तरीके से प्रदर्शन किया था। इस सम्पूर्ण प्रसंग पर प्रगद जी बहुत असन्तुष्ट हुए, उन्होने दुःख भरे लहजे में कहा"यह लोग (याने कट्टरपन्थी) दीर्घकाल तक गुमराही मे पड़े रहेगे।" ११० : प्रसाद वाङ्मय