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प्रसादजी को वैदिक धर्म और संस्कृति से विशेष प्रेम था। प्राचीन ऋषियों को वे संसार का सर्वश्रेष्ठ दार्शनिक कवि मानते थे। बुद्ध और शंकर के दार्शनिक स्रोतों के सुजारस का' उन्होंने छक कर पान किया था, और स्वामी दयानन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी रामतीर्थ प्रभूति महात्माओं की ज्ञानगरिमा का भी उन पर पर्याप्त प्रभाव था। वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सदा अनुयायी रहे। वे दार्शनिक कवियों और ज्ञानियों की सभा की प्रथम पंक्ति के नररत्न थे। ___एक दिव्य देवपुरुष की तरह वे गान्त, गम्भीर, निश्छल और निर्विकार थे, और स्वयंसिद्ध सन्त की तरह वे सन्तोषी और विरागी दोनों ही मालूम होते थे। उनकी काव्यमयी कल्पना अनन्त नक्षत्रों के प्रस्फुटित प्रकाश पुंज को पार करके उम भावमय जगत में विचरण किया करती थी, जहां केवल अखंड शान्ति और पवित्र प्रेम है। उनका प्रेम असीम, अनन्त और विश्वव्यापी था, और 'वसुधैव कुटुंबकम्' सिद्धान्त के अनुसार वे पूर्ण विश्वप्रेमी थे। प्रसादजी की ये पंक्तियां कैसी याद आती हैं'इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिक रहना । किन्तु पहुंचना उस सीमा तक जिसके आगे राह नहीं।" प्रसादजी यद्यपि चले गये, पर प्रसाद जी साहित्य जगत में सदा जीवित रहेंगे। घप छांह के खेल-सदृश यह जीवन बीता जाता है । समय भागता है प्रति क्षण में, नव अतीत के तुषार-कण में, हमें लगाकर भविष्य-रण में, आप कहां छिप जाता है ? ('प्रसाद'जी) संस्मरण पर्व : १११