पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४१६

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बाबू साहब -श्री दुर्गादत्त त्रिपाठी एक दिन पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' ने मुझे काशीनागरी नाटक मण्डली के तीन पास दिये। वह उस रात नाटककार द्विजेन्द्रलाल राय के उत्कृष्ट नारी पात्र मानसी की भूमिका वे निभाने वाले थे। गाली देकर बात करना उनकी आत्मीयता का परिचायक था और उसी लहजे में उन्होंने मुझे हिदायत कर दी थी कि मैं जैसे भी हो बाबू साहब और विनोद शंकर व्यास को अपने साथ अवश्य लाऊँ। कारणवश बाबू साहब किसी आवश्यक कार्यवश न जा सके । 'उग्र' को चिन्ता हुई क्योंकि बाबू साहब उग्र से स्नेह करते थे और उनके बुलाने पर न जाने वाले लोगों मे नही थे। फिर विनोद से कारण मालूम हुआ तो उनका गालियो का धाराप्रवाह रुका। उस समय वह मानसी की भूमिका के लिए तैयार हो चुके थे और उन्होंने हम दोनों को अन्दर ही बुला लिया था। डायरेक्टर आनन्दी प्रसाद कपूर उनका मूड बिगड़ता देखकर किसी बहाने से उन्हे लेकर ग्रीनरूम की ओर चले गये और हम दोनों दर्शको में जा बैठे। 'उग्र' दूसरे दिन चार बजे शाम को बूटी छानने का प्रस्ताव लेकर प्रसाद-मन्दिर पधारे । बाबू साहब कमरे मे बैठे किसी व्यावमायिक कार्य में व्यस्त थे। उग्र ने बूटी तयार की, स्वयं पी, हमे पिलाई और बाबू साहब के लिए कमरे मे पहुंचा दी । शीघ्र ही बाबू साहब ने विनोद, उग्र, गौड जी और मुझे कमरे मे बुला लिया। उग्र को जितना भरोसा अपनी लेखनी पर था उससे कुछ अधिक अपने किये हुए अभिनय पर हो रहा था। बनारस के मभी छोटे बडे लोग उनके सजीव अभिनय से प्रभावित हुए थे। उनके अभिनय मे उनके गोल मुडौल चेहरे, बीस एक बर्स की कच्ची आयु, सुन्दर सुगठित शरीर और भावभीने अभिनय आदि अनेक तत्वो का अद्भुत संयोग हुआ था। परन्तु 'उग्र' ने इस सन्दर्भ मे अपने मुंह से कुछ कहना अनुचित समझा। महाकवि 'प्रसाद' मित्र-भाव अवश्य वरतते थे परन्तु उनके सामने इतनी शालीनता आवश्यक थी। सामने 'आज' पड़ा देखकर उग्र ने समझ लिया था कि बाबू साहब नाटक की ममीक्षा पढ़ चुके है । कुछ देर 'उग्र' को मौन देखकर सब लोग मौन रहे। ११२ : प्रसाद वाङ्मय