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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/४१७

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बाबू साहब के पास एक विद्या-वयोवृद्ध आचार्य भी बैठे थे जो उन्हें पाली और प्राकृत के अध्ययन में सहायता देते थे। उनके कारण बाबू साहब मौन थे परन्तु कौतूहलवश चाहते अवश्य थे कि पहले 'उग्र' ही अपने उलाहने के साथ शुरूआत करे। 'उग्र' को निरन्तर चुप देखना एक असम्भव सी बात थी, इसलिए बाबू साहब को ही मौन भंग करना पड़ा और गौड़ जी से बोले, 'आज मैं आपके मंचसज्जा-कौशल की प्रशंसा पढ़ी। मैं ही नहीं जा सका।' गौड़ जी बोले, “मैं तो 'उग्र' जी की वजह से घेर लिया गया।" बाबू साहब 'उग्र' से बोले आपके अभिनय को 'आज' ने चिर-स्मरणीय बताया है। बधाई। ___ इस बात ने 'उग्र' के मान का अनावरण कर दिया, परन्तु फिर भी वह बात को बहुत कुछ साधकर नम्रता से बोले, 'आप तो मुझे बेचन ही समझते परन्तु दर्शकों ने मुझे मानसी ही समझा। सम्भव है कोई कुशल लड़की इस भूमिका को और भी सजीव बना देती।' बाबू साहब ठठा कर हंसे और फिर बड़ी आत्मीयता के साथ बोले, 'मैं तो आपको इस 14य भी मानसी ही समझ रहा हूँ। 'उग्र' ने कोई उत्तर न दिया, परन्तु उनका सिकुड़ना एक प्रश्नचिह्न था, इसलिए बाबू साहब को अपनी कही बात का स्पष्टीकरण करना पड़ा। परन्तु फिर भी बड़े सरल स्वभाव से बोले, 'आपके कानों के अन्दर अखाड़े की मिट्टी की तरह रात की रूज़ के गुलाबी अवशेष देखकर ही मैंने यह बात कही थी।' और फिर क्या था, हम सभी लोग हंस पड़े और समवेत हास से कमरा गुंज गया। एक दिन बाबू साहब ने हमें मध्याह्न भोजन के लिए 'प्रसाद-मंदिर' में बुला रखा था। उस दिन चि० बच्चा का जन्म-दिन था। विश्वम्भर नाथ जिज्जा, कृष्णदेव प्रसाद गौड़, विनोद शंकर व्यास, शिवदास गुप्त 'कुसुम', आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, मुच्छन द्विवेदी (शांतिप्रिय द्विवेदी) पहले से बैठे थे। मैं 'उग्र' को उनके चाचा छविनाथ पाण्डेय जी के घर से लेता हुआ कुछ देर बाद पहुंचा। शुक्ल जी 'लहर' की एक प्रति खोले हुए बड़ी तन्मयता से कुछ पढ़ रहे थे। पता चला कि उन्होंने 'लहर' की प्रति मांगी थी और बाबू साहब ने अपने संग्रह की अन्तिम प्रति उन्हें अर्पण कर दी थी। भोजन परोसा गया और हम लोग पंक्तिबद्ध होकर बैठ गये। शुक्ल जी 'लहर का अवलोकन और भोजन समान गति से किये जा रहे थे। गौड़ जी ने 'उग्र' को टहोका और उग्र ने उनकी इच्छा को वाणी दी____ "लहर तो आप कई बार पढ़ चुके होंगे। अब मटर चिउड़ा, मगदल और खीर को भी इसी प्रकार पढ़ कर बताइये कि कितनी स्वादिष्ट है।" संस्मरण पर्व : ११३